भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
भगवान के चरणपंकज में पहुँचे बिना, इस अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नाट्य के सूत्रधार प्रभु के शरण गये बिना शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। पृथ्वी, जल, तेज, सूर्य, अग्नि, चन्द्रमण्डल, नक्षत्रमण्डल जिसके संकेत पर नाचते हैं, उसकी शरणागति के बिना अखण्ड शान्ति कहाँ? पूर्ण अस्तित्व, पूर्ण बोध, पूर्ण आनन्द, पूर्ण स्वातन्त्र्य, पूर्ण शान्ति एवं पूर्ण नियामकत्व भगवान में ही होता है। सब लोग चाहते हैं कि “आनन्दस्वरूप बन जाऊँ, पूर्ण स्वतन्त्र हो जाऊँ, सबका नियमन-शासन करूँ।” इस तरह जिसके लिये समस्त चेष्टाएँ हो रही हैं, वह आनन्द अत्यन्त प्रसिद्ध है। संसार भर की समस्त वस्तुओं में प्रेम जिसके लिये हो और जो स्वयं निरतिशय एवं निरुपाधिक प्रेम का आस्पद हो, अर्थात जो अन्य के लिये प्रिय न हो, वही आनन्द होता है। स्पष्ट ही है कि समस्त आनन्द के साधनों में प्रेम अस्थिर होता है। स्त्री-पुत्रादि में प्रेम तभी तक है, जब तक वे अनुकूल हैं, प्रतिकूल होते ही वे द्वेष्य हो जाते हैं। परन्तु सुख और आनन्द सदा ही प्रिय रहते हैं। कभी किसी को भी आनन्द से द्वेष हो, यह नहीं कहा जा सकता। इस तरह नास्तिक से भी नास्तिक आनन्द को चाहता है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील और उसके लिये लालायित होता है। परन्तु उसमें पहचानने की ही कमी है, क्योंकि जिस आनन्द और सुख के लिये नास्तिक व्यग्र है, उसे वह पहचानता नहीं। वह तो सुख-साधन स्त्री-पुत्रादि, शब्द, स्पर्श आदि सम्भोग में ही सुख की भ्रान्ति में फँसकर उसमें ही सन्तुष्ट हो जाता है। विवेचन करने से विदित हो जाता है कि जिनमें कभी प्रेम द्वेष होता है, वह सुख नहीं है। सदा ही जिसमें निरतिशय एवं निरुपाधिक प्रेम होता है, वही सुख है। सांसारिक सम्भोग-साधन पदार्थ ऐसे हैं नहीं, अतः वे सुखरूप नहीं हैं। किन्तु अभिलषित पदार्थ की प्राप्ति में तृष्णा-प्रशमन के अनन्तर शान्त, अन्तर्मुख मन पर जिस सुख का आभास पड़ता है, उस आभास या प्रतिबिम्ब का निदान या बिम्बभूत जो शुद्ध अन्तरात्मा है, वही आनन्द है, क्योंकि जो लक्षण आनन्द का है, वही अन्तरात्मा का भी है। जैसे सब कुछ आनन्द के लिये प्रिय है, आनन्द और किसी के लिये प्रिय नहीं होता, ठीक वैसे ही समस्त वस्तु आत्मा के लिये प्रिय होती है, आत्मा किसी दूसरे के लिये प्रिय नहीं होता। अतः अन्तरात्मा ही आनन्द और निरतिशय, निरुपाधिक पर प्रेम का आस्पद है। उसी का आभास अन्तर्मुख अन्तःकरण पर पड़ने से ‘अहं सुखी’ इत्यादि व्यवहार होता है। वही सुख किंवा अन्तरात्मा है। इसी के लिये समस्त कार्य-करण संघात की प्रवृत्ति होती है। यही सुख-दुःख-मोहात्मक, नानात्मक संघात से विलक्षण, सुख-दुःख-मोहातीत, असंहत, असंग, अद्वितीय तत्त्व ही सच्चिदानन्द का आनन्दरूप है। इसी तरह प्राणिमात्र स्वतन्त्रता चाहता है। एक चींटी को भी पकड़ने पर वह व्याकुलता के साथ हाथ-पैर चलाती है। शुक-सारिकादि विहंगम सुवर्ण के भी पन्जर में रहकर, सुन्दर, मधुर, भक्ष्य-पेय को नहीं पसन्द करते, किन्तु बन्धनमुक्त होकर स्वतन्त्रता से वन में खट्टे फलों को भी खाकर जीवन बिताना अच्छा समझते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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