भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सबसे सगे भगवान
जीवात्मा सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा का अंश है। जैसे घटाकाश, महाकाश, शरावाकाश के भीतर, बाहर, मध्य में महाकाश, कटक, मुकुट, कुण्डल आदि के भीतर, बाहर, मध्य में जल विद्यमान है, वैसे ही चेतन, अमल, सहज सुखराशि जीवात्माओं के भीतर, बाहर, मध्य में सच्चिदानन्द परमात्मा विद्यमान है। इस दृष्टि से जीवात्मा भगवान का पुत्र, अंश एवं स्वरूप है। जैसे शूकर-कूकर के बच्चे शूकर-कूकर होते हैं, सिंह के बच्चे सिंह होते हैं वैसे ही ‘अमृतस्य पुत्राः’, ‘मर्मवांशो जीवलोके’ इत्यादि श्रुतिस्मृति के अनुसार भगवान के पुत्र या अंश जीवात्मा भगवान का स्वरूप ही ठहरता है। जैसे निर्मल जल पृथ्वी पर पड़ते ही मलिन हो जाता है, वैसे ही शुद्ध चिदात्मा माया के संसर्ग से मलिन हो जाता है। भगवान जीवों के परम अन्तरंग और घनिष्ठ सम्बन्धी हैं। संसार की सब वस्तुओं का वियोग अनिवार्य है। कलत्र, पुत्र, मित्र, क्षेत्र सभी वस्तुओं के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध गौण ही है। मुख्य सम्बन्ध तो भगवान ही का है। जीवात्मा स्वर्ग, नरक जहाँ भी जाय भगवान ही उसके साथ होते हैं, और सभी लोग सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। अघासुर के मुख में ग्वालबाल प्रविष्ट हो गये, उसके विष से उन्हें जलते हुए देखकर प्रभु श्रीकृष्ण भी प्रविष्ट हो गये। संसार में है किसी की प्रीति या शक्ति ऐसी जो एक साँप के मुख में पड़े पुत्र या मित्र के साथ स्वयं भी जाय? किसी स्त्री का पुत्र कूप में गिरता है, वह कूप के तट पर खड़ी होकर चिल्लाती है- “दौड़ो, दौड़ो, बच्चे को निकालो” पर कूप में उतरने की हिम्मत उसकी नहीं होती। फिर साँप के मुख में कौन प्रविष्ट होने के तैयार रहेगा? गाढ़ से गाढ़, विषम से विषम स्थानों में जीवात्मा का साथी भगवान ही है। माँ के पेट में, विभिन्न योनियों में, नरक में, किंबहुना जहाँ भी जीवात्मा को जाना होता है, भगवान वहीं जाते हैं। जैसे महाकाश घटाकाश का, जल तरंग का संग नहीं छोड़ सकता वैसे ही भगवान् संग नहीं छोड़ते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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