भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरामजन्म-रहस्य
जिस समय संसार में दुराचार, दुर्विचार का परितः प्रसार होने लगता है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धैर्य, न्याय आदि मानवोचित सद्गुणों का अपमान होने लगता है, दम्भ का ही साम्राज्य तथा वेद-शास्त्रोक्त वर्णाश्रम धर्म का विलोप होने लगता है, दैत्य-दानवों या दैत्यप्राय कुपुरुषों से धरा व्याकुल हो जाती है, सत्पुरुष तथा देवगण अनीति से उद्विग्न हो उठते हैं, उस समय सर्वपालक भगवान किसी रूप में प्रकट होकर श्रुति-सेतु का पालन करते और अपने मनोहर, मंगलमय, परम पवित्र चरित्रों का विस्तार करके प्राणियों के लिये मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। अभिज्ञों का मत है कि यदि भगवान का विशुद्ध, सत्त्वमय, परम मनोहर, मधुर स्वरूप प्रकट न होता तो अदृश्य, अग्राह्य, अव्यपदेश्य परब्रह्म के साक्षात्कार की बात ही जगत से मिट जाती। भगवान की मधुर मूर्ति एवं चरित्रों में मन के आसक्त हो जाने पर उसकी निर्मलता और एकाग्रता सहज में ही सिद्ध हो जाती है। निर्मल एवं एकाग्र चित्त ही भगवान के अचिन्त्य रूप के चिन्तन में समर्थ होता है। जैसे अंजन द्वारा शुद्ध नेत्र से सूक्ष्म वस्तु का परिज्ञान सुगमता से हो जाता है, वैसे ही भगवच्चरित्र एवं उनके मधुर स्वरूप के परिशीलन से निर्मल होकर चित्त सूक्ष्म से सूक्ष्म भगवदीय रहस्यों को समझ लेता है। इसके अतिरिक्त अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रों को प्रेमयोग-प्रदान करने के लिये भी प्रभु के लीला-विग्रह का आविर्भाव होता है। इन्हीं सब भावों को लेकर मधुमास के शुक्लपक्ष की नवमी को मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीभगवान रामचन्द्र का जन्म हुआ। अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक, भगवान सर्वान्तरात्मा, सर्वशक्तिमान् की भ्रुकुटी के संकेतमात्र से उनकी मायाशक्ति विश्वप्रपंच का सर्जन, पालन तथा संहार करती है। जैसे अयस्कान्त (चुम्बक) के सान्निध्य से लौह में हलचल होती है, वैसे ही भगवान के सान्निध्य मात्र से मायाशक्ति को चेतना प्राप्त होती है। जैसे झरोखों में सूर्य-किरणों के सहारे निरन्तर परिभ्रमण करते हुए अपरिगणित त्रसरेणु दिखाई देते हैं, वैसे ही प्रकृतिपारदृश्वा लोकोत्तरपुरुष-धौरेयों को भगवान के सन्निधान में अनन्त विश्व दिखाई देते हैं- “यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति।।” भगवान अपने पारमार्थिक रूप से निराकार, निर्विकार, निष्कल, निरीह, निर्गुण होते हुए भी मायाशक्ति-युक्तरूप से अनादिबद्ध, स्वांशभूत जीवों पर कृपा करके उनके कल्याणार्थ विश्व के सर्जन एवं संहारादि लीलाओं में प्रवृत होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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