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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
वेदान्तवेद्य, परात्पर, पूर्णतम भगवान अपने परम प्रिय धर्म के संस्थापन तथा गो, विप्र, साधुजनों की रक्षा के लिये अपनी दिव्य लीलाशक्ति द्वारा अद्भुत सौन्दर्य, माधुर्य, सौगन्ध्य, सौरस्य, सौस्वर्य्य सुधाजलनिधि, मंगलमय विग्रह धारण करके प्रकट होते हैं। भक्तों को अभय देने वाले विश्वान्तरात्मा भगवान का प्रादुर्भाव प्राकृत जीवों की तरह नहीं होता, किन्तु भौतिक धातु सम्बन्ध के बिना ही मन में उनका प्राकट्य होता है। व्यापक विरज ब्रह्म का धारण सिवा निर्मल अग्र्य मन के और किसी तरह बन ही नहीं सकता। अनन्त अखण्ड ब्रह्मतेज को ग्रहण तथा धारण करने से प्राणी में तेज, प्रागल्भ्य आदि दिव्य शक्तियाँ स्फुरित होती है। अत: अचिन्त्य भगवान श्रीवसुदेव जी के मन में ही प्रविष्ट हुए और मन से ही देवकी ने वसुदेव जी से श्रीकृष्ण को धारण किय- “आविशेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः।“ सकल लोकनायक पुरुषोत्तम का आगमन जानकर समस्त प्रकृति अपने प्रियतम, जीवनधन प्रभु के स्वागत के लिये उतावली हो उठी। परमशोभन समय प्रकट हुआ और शान्त दिव्य नक्षत्र तथा ग्रह-तारक आ जुटे। समस्त दिशा-विदिशाएँ प्रभु-सम्मिलन की सम्भावना से प्रसन्न हो उठीं। निर्मल उडुगणों से युक्त गगन के आनन्द की सीमा न रही। पुर, ग्राम, व्रजसहित माधवी श्रीभूदेवी ने सर्वमांगल्यसम्पन्नरूप धारण किया। सरोवर, सरिताओं का जल शीतल, निर्मल तथा सुहावना होकर कमल-कमलिनियों की दिव्यश्री से सुशोभित हो उठा। भ्रमरवृंद, मयूर, हंस, सारस, कारण्डव, कोकिल, शुक, तित्तिर, पारावत और अनेक दिव्यवर्ण विहंगमों के सुमधुर निनाद से उन सरित-सरोवर तथा वनराजियों के पुष्पस्तबक पल्लवादि सन्नादित होने लगे और पुष्पगंधयुक्त सुखद, सुस्पर्श, सुन्दर, शीतल समीर बहने लगा। इतना ही नहीं, दुष्ट दानवों के अत्याचार से प्रशान्त अग्नि, श्रीभगवान का आगमन जानकर फिर से देदीप्यमान हो उठे और आततायियों के उत्पीड़न से मुरझाये हुए सत्पुरुषों के सुमनोरूप सुमनस पुनः प्रफुल्लित हो गये, देवलोक में भी देवता दुन्दुभि बजाने लगे और ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र आदि पुष्पों की वृष्टि करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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