भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
नामरूप की उपयोगिता
यदि नामरूप हैं तो सब भगवान के ही हैं, अन्य किसी के नहीं। ‘किम्’ शब्द सर्वनाम है, अतः वह सभी का वाचक है। जो सब स्वरूप है, उसमें ही ‘किम्’ शब्द का प्रयोग हो सकता है। जिस वस्तु पर किसी एक का अधिकार नहीं होता वह राजा की समझी जाती है। जो राजा की वस्तु है, वह सबके उपयोग में आती है। अतः ‘किम्’ शब्द का जैसे यह अर्थ है कि परमतत्त्व का विशेष नाम नहीं है वैसे ही यह भी आशय है कि सब नाम और रूप उन्हीं के हैं। फिर भी राजस, तामस, सात्त्विक ऋषि, देवता या भगवत्सम्बन्धिनी नामरूप क्रियाएँ भवबन्धन से छुड़ाकर परमतत्त्व को प्राप्त कराती है। और उनके विपरीत नामरूप क्रियाएँ अनेक अनर्थयुक्त संसार में भटकने वाली होती है। इसीलिए वर्णा-श्रमानुसार श्रीतस्मार्त्त क्रियाएँ, मन्त्र एवं भगवन्नाम आदरणीय तथा समाश्रयणीय हैं। इसी दृष्टि से भिन्न-भिन्न गुणरूप विशिष्ट विग्रह और प्रतिमाओं की आराधनाएँ मान्य हैं। उन सबकी पद्धति, अधिकार, शुद्धि, अशुद्धि सभी शास्त्रविधान के अनुसार ही होना चाहिए। पारमार्थिक चर्चाओं एवं ज्ञानाभिमान से उन सबकी अवहेलना केवल प्रमाद है। जैसे घी और बत्ती के संयोग से व्यापक निर्विकार अग्नि दिव्य दीपशिखा के रूप में प्रकट होती है, जैसे शैत्य के योग से जल हिमरूप में व्यक्त होता है, वैसे ही अचिन्त्य लीलाशक्ति के योग से अनामरूप भगवान ही दिव्य नामरूप स्वरूप में प्रकट होते हैं। अत एवं, भगवान का नाम और रूप निरावरण भगवान का साक्षात्स्वरूप ही है। जैसे काष्ठ, पाषाण, प्रसाद जहाँ भी कहीं पैर रखा जाय, वह सब कुछ पृथ्वी ही है, वैसे ही जिस किसी भी नामरूप से भगवान का ही दर्शन और श्रवण है। तब भी विशुद्ध लीलाशक्ति ही महिमा से प्रकट भगवान के नामरूप एवं लीलाएँ निरावरण भगवान के रूप हैं, इतर नामरूप क्रियाएँ निरावरण भगवान के रूप हैं। जैसे मेघादि अस्वच्छ उपाधियों से सूर्यमण्डल आवृत रहता है परन्तु दूरवीक्षणादि दिव्य पाषाण के व्यवधान होने पर भी आवृत नहीं होता, वैसे ही अविद्यादि मलिन शक्तियों के योग से नामरूप विवर्त्त में पारमार्थिक तत्त्व आवृत रहता है परन्तु विद्या या लीला आदि दिव्य शक्तियों के याग से प्रकट भगवान के नामरूप में निरावरण भगवान का स्पष्ट रूप से भान होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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