भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस अपार संसार-समुद्र में जिन लोगों के मन निरन्तर गोते लगा रहे हैं, उन्हें सब प्रकार के दुःखों से मुक्त कर अपने परमानन्दमय स्वरूप की प्राप्ति कराने के लिये अहैतुक करुणामय दीनवत्सल श्रीभगवान ही स्वयं धर्मावबोधक वेद रूप में अवतीर्ण होते हैं। जिस समय कालक्रम से सर्वसाधारण के लिये वेद का तात्पर्य दुर्बोध हो जाता है उस समय श्रीहरि ही पुराणादि रूप में आविर्भूत होते हैं। पुराणों का मुख्य प्रयोजन वेदार्थ का निरूपण करना ही है। किन्तु यह सब रहते हुए भी परस्पर मतभेद रहने के कारण वेदार्थ-सम्बन्धी विरोध का निराकरण भगवान की उपासना के द्वारा शुद्ध हुए अन्तःकरण से ही हो सकता है। जिन लोगों की विवेकदृष्टि पारस्परिक विवाद के कारण नष्ट हो गयी है उन्हें वेदार्थ का बोध कराकर परम कल्याण की प्राप्ति करने के लिये ही श्रीमद्भागवत का प्रादुर्भाव हुआ है, जैसा कि कहा है-
अर्थात धर्म एवं ज्ञानादि के सहित भगवान के स्वधाम सिधारने पर जिन मनुष्यों की दृष्टि कलियुग के कारण नष्ट हो गयी है उनके लिये इस समय इस पुराण रूप सूर्य का उदय हुआ है। वस्तुतः, यह ग्रन्थ वेदार्थ-विरोध की निवृत्ति में सूर्य के ही समान है-
अर्थात यह श्रीमद्भागवत पुराण ब्रह्मसूत्र और समस्त उपनिषदों का तात्पर्य है तथा यह अष्टादश संज्ञक ग्रन्थ गायत्री का भाष्यस्वरूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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