भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
करुणालहरी
पण्डितराज श्रीजगन्नाथजी की ‘गंगालहरी’ का नाम भला कौन नहीं जानता? उन्हीं की एक अत्यन्त अद्भुत सरस कृति ‘करुणालहरी’ है। उसी में से कुछ सदुक्तियाँ यहाँ निदर्शित की जा रही हैं। एक पद्य में वे कहते हैं- भगवान! मैं तो नरकों की तरह-तरह की यातनाओं से परिचित हूँ, मेरी लज्जा भी विदा हो चुकी है, फिर दूसरों के द्वारों पर भटकने से मेरा क्या बिगड़ेगा? परन्तु नाथ! जरा आपको सूक्ष्म दृष्टि से विचारना चाहिये, जनता आपको क्या कहेगी?- “नितरां नरकेऽपि सीदतः किमु हीनं गलितत्रपस्य मे। नाथ! यद्यपि नरकों में अपने कर्मों के ही परिणामस्वरूप मुझे बड़ी-बड़ी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं, फिर भी यह बड़ी असह्य बात है कि देखने वाले मुझे अनाथ कहते हैं। नाथ! भवजाल बन्धन में तो नृग, गजेन्द्र आदि मेरे साथ ही बँधे थे। मेरी उपेक्षा करके उन्हें मुक्त करते हुए क्या आपके मन को करूणा नहीं द्रवित करती? प्रभो! आप बिना उपाधि (कारण) ही प्राणियों की विपत्तियों को दूर करते हो, यह जानकर ही मैंने पुण्यपुंजों की उपेक्षा की है। आपको पतित-पावन सुनकर ही मैंने अहर्निश पाप किया। फिर अब आप उपेक्षा करते हैं? प्रभो! मैंने पुण्य कभी नहीं किया, सब कुछ पाप ही किया है, फिर मैं अब आपसे कैसे क्या कहूँ? नाथ! आपके सामने ही मुझे मद, काम, मोह आदि अपनी-अपनी ओर खींचते हैं। आपको क्या लज्जा नहीं लगती? गढ़े में गिरते हुए शिशु को पथिक भी शीघ्रता के साथ बचा लेता है। नाथ! आप तो जनक ही हैं, फिर भवार्णव में डूबते हुए को क्यों नहीं बचाते?“अपि गर्तमुखे गतः शिशुः पथिकेनाऽपि निवायंते जवात्। हे सुकृतप्रिय! यदि आप सुकृतियों को ही सुखद होकर मुझ पातकी का धारण न करोगे तो आपका विश्वम्भर नाम भी दुर्लभ हो जायगा। प्रभो! यदि आप मेरे पुरुष (कठोर) वाक्यों से रुष्ट हो गये हों, तो मुझ मुखर और अपराधी को अपने संसार से निकाल दो। प्रभो! पतित, दुर्गत एवं अकृतज्ञ कैसा भी क्यों न हो ‘मैं आपका हूँ’ ऐसा कहने मात्र से आपको लज्जा से ही उस पर दया करनी चाहिये। किसी पुण्य प्रकृति पर कृपा करने से कोई विशेष महत्त्व नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज