भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रभुकृपा
प्रभुकृपा के बिना प्रभु की दुस्तरा माया को तरना अत्यन्त असम्भव है। यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण प्राणी सर्वान्तरात्मा, सर्वाधिष्ठान भगवान के अंश ही हैं। जैसे जल से तरंग, अग्नि से विस्फुलिंग (चिनगारियाँ), महाकाश से घटाकाश, उदंचनाकाश आदि उद्गत (उत्पन्न) होते हैं, वैसे ही सम्पूर्ण चेतन वर्ग की उत्पत्ति भगवान से होती है। वस्तुतः अत्यन्त निरुपाधिक तत्त्व में वास्तविक अंशांशिभाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि निरवयव, निरंश में अवयव एवं अंश की भावना सर्वथा असंभव है, तथापि जैसे अविकृत कौन्तेय (कर्ण) में भ्रम से ही राधासुत होने की भ्रान्ति हो गयी, वैसे ही प्रत्यक्चैतन्याभिन्न, स्वप्रकाश चिद्रूप में ही भ्रम से जीवभाव भासित होता है। जैसे मायावी अपनी चमत्कारपूर्ण माया द्वारा निर्विकार रूप से स्थिर रहकर ही आकाश में कच्चे सूत्र की कुखरी (बण्डल) फेंककर शस्त्रास्त्र सुसज्जित वीर वेष में सूत्र के सहारे ऊपर चढ़ता है, चढ़ते-चढ़ते अदृश्य हो जाता है और फिर दैत्यों से युद्ध करता है, युद्ध करते-करते उसके अंग-प्रत्यंग शिर आदि अवयव पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, उसकी पत्नी उसे लेकर चितारोहरण करके पति की सहगामिनी हो जाती है, यह सब घटना प्रत्यक्ष दिखायी देने के पश्चात् वह उसी तागे के सहारे फिर आकाश से उतरता हुआ दिखायी देता है, फिर भी वास्तविक मायावी अपनी माया से लोगों की दृष्टि से ओझल होकर जहाँ का तहाँ ही विराजमान रहता है, वैसे ही प्रत्यक चिदात्मा भगवान निर्विकार, कूटस्थ, एकरस रूप से सर्वदा स्वरूपस्थ होने पर भी समष्टि-व्यष्टि, स्थूल-सूक्ष्म, कारण जगत, जाग्रत‚ स्वप्न‚ सुषुप्ति अवस्था आदि प्रपंच फैलाकर उन पर विश्व-तैजस-प्राज्ञ‚ विराट-हिरण्यगर्भ-अव्याकृतरूप में अनुभूयमान होता है, अनेक व्यवहारों में तल्लीन, तज्जन्य शोक-मोहादि उपद्रवों में फँसा हुआ दिखायी देता है, परन्तु फिर भी उसके स्वरूप में किंचित् भी विकार या हलचल नहीं होती। प्रपंच एवं प्रपंचरूप स्वरूप से पृथक, असंग, कूटस्थ स्वरूप सर्वदा एकरस ही रहता है। इसी देह में अन्तर्मुख होकर देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहमर्थ आदि अतत् (अनात्मा) का अपोहन करते हुए यदि ढूँढ़े, तो उसके उपलब्ध होने में कठिनाई नहीं, परन्तु जैसे कोई घर में खोयी हुई वस्तु को वन में ढूँढ़े, वैसे ही बहिर्मुख प्राणी आन्तर वस्तु को-भीतर की खोयी वस्तु को-बाहर ढूँढ़ता है। विचार करने वर सर्वभास्य दृश्य के भासक निर्विकार दृक्स्वरूप भानात्मक भासक के उपलम्भ में कार्य परम्परा को परम कारण में और परम कारण को भी कार्यकारणातीत तत्त्व में विलीन या बाधित कर देने पर अशेष विशेषातीत वस्तु को पा लेने में कठिनाई नहीं है, तथापि भगवत्कृपा के बिना मिथ्या विश्व से अभिनिवेश नहीं छूटता- “वदन्ति चैतत् कवयः स्म नश्वरं पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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