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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का अवलम्बन अनिवार्य
ईश्वर का अभिव्यंजक शास्त्र है। शास्त्रों पर विश्वास करके एवं समुचित ढंग से उनका अध्ययन करके उनके अनुसार अनुष्ठान करना और परात्पर, पूर्णतम पुरुषोत्तम परब्रह्म की उपासना करना यही कल्याण का मार्ग है। ‘गीता’ भी यही कहती है कि प्राणी स्वधर्मानुष्ठान द्वारा ही अभ्युदय, निःश्रेयस, परमगति प्राप्त कर सकता है। इसीलिये हमें अपनी समस्त चेष्टाओं एवं हलचलों को शास्त्रोक्त बनाने की कोशिश करनी चाहिये। हमारा राजनैतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जो भी कार्य हो, वह शास्त्रोक्त ढंग से होना चाहिये। लोग कहते हैं कि आप तो सब जगह धर्म का अड़ंगा लगाते हैं, पर किया क्या जाय? जो हलचलें शास्त्रविरुद्ध मालूम पड़े वे पाप एवं सर्वथा त्याज्य हैं। शास्त्रोक्त धर्म के समाश्रयण से ही आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सब प्रकार की उन्नति एवं सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है। आर्थिक, सामाजिक एवं नैतिक सभी प्रकार के सामूहिक-वैयक्तिक लाभ उसी धर्म से सम्भव हैं। प्राचीन, अर्वाचीन किसी भी काल में जो शक्तिशाली, प्रभावशाली, मेधावी, स्मृतिसम्पन्न, नीतिशील, कवि और ज्ञानी हुए हैं, उनका मूल कारण तपस्या, स्वधर्मानुष्ठान और ईश्वराराधन ही है। बिना इसके विशेषता नहीं आ सकती। ऐसा भी देखा जाता है कि पहले तो तपस्या, स्वधर्मानुष्ठान और वर्तमान में वैषयिक आसक्ति एवं अधर्माचरण। प्राणी जब पददलित, अपमानित एवं दुःखी होता है, तब उसको ईश्वर, धर्म और न्याय की याद आती है। इसीलिये शास्त्रों में अपमान की, विपत्ति की बड़ी महिमा बतलायी गयी है। विविध सुख-सम्पत्ति और ऐश्वर्य में फँसकर प्राणी अपने प्रियतम प्रेमास्पद भगवान को भूल जाता है। यदि सावधान रहे, ईश्वर, धर्म, न्याय को न भूले, तो फिर वह बड़ी ऊँची स्थिति को प्राप्त कर सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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