भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिव से शिक्षा
भगवान भूतभावन श्रीविश्वनाथ के चरित्रों से प्राणियों को नैतिक, सामाजिक, कौटुम्बिक अनेक प्रकार की शिक्षा मिलती है। समुद्र-मन्थन में निकलने वाले कालकूट विष का भगवान शंकर ने पान किया और अमृत देवताओं को दिया। राष्ट्र के नेता और समाज एवं कुटुम्ब के स्वामी का यही कर्तव्य है, उत्तम वस्तु राष्ट्र के अन्यान्य लोगों को देनी चाहिये और अपने लिये परिश्रम, त्याग तथा तरह-तरह की कठिनाइयों को ही रखना चाहिये। विष का भाग राष्ट्र या बच्चों को देने से वैमनस्य और उससे सर्वनाशा हो जाएगा। शिव जी ने न विष को हृदय (पेट) में उतारा और न उसका वमन ही किया, किन्तु कण्ठ में ही रोक रखा। इसीलिये विष और कालिमा भी उनके भूषण हो गये। जो संसार के हित के लिये विषपान से भी नहीं हिचकते, वे ही राष्ट्र या जगत के ईश्वर हो सकते हैं। समाज या राष्ट्र की कटुता को पी जाने से ही नेता राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। परन्तु, फिर भी उस कटुता का विष वमन करने से फूट और उपद्रव ही होगा। साथ ही उस विष को हृदय में रखना भी बुरा है। अमृतपान के लिये सभी उत्सुक होते हैं, परन्तु विषपान के लिये शिव ही हैं; वैसे ही फल भोग के लिये सभी तैयार रहते हैं, परन्तु त्याग तथा परिश्रम को स्वीकारने के लिये महापुरुष ही प्रस्तुत होते हैं। जैसे अमृतपान के अनुचित लोभ से देव-दानवों का विद्वेष स्थिर हो गया, वैसे ही अनुचित फलकामना से समाज में विद्वेष स्थिर हो जाता है। शिवा जी का कटुम्ब भी विचित्र ही है। अन्नपूर्णा का भंण्डार सदा, भरा, पर भोले बाबा सदा के भिखारी। कार्तिकेय सदा युद्ध के लिये उद्यत, पर गणपति स्वभाव से ही शान्तिप्रिय। फिर कार्तिकेय का वाहन मयूर, गणपति का मूषक, पार्वती का सिहं और स्वयं अपना नन्दी और उस पर आभूषणों सर्पों के। सभी एक दूसरे के शत्रु, पर गृहपति की छत्र छाया में सभी सुख तथा शान्ति से रहते हैं घर में प्रायः विचित्र स्वभाव और रुचि के लोग रहते हैं, जिसके कारण आपस में खटपट चलती ही रहती है। घर की शान्ति के आदर्श की शिक्षा भी शिव ही मिलती है। |
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