भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
शास्त्र रहस्य को जानने वाले महानुभावों का कहना है कि शैवग्रन्थों में श्रीविष्णु की और वैष्णवग्रन्थों में श्रीशिव की जो निन्दा पायी जाती है, वहाँ इस निन्दा का मुख्य तात्पर्य अन्य देवता की निन्दा में नहीं है, अपितु वह ग्रन्थ जिस देवता का वर्णन कर रहा है उसकी प्रशंसा में है। इस पर कोई कहे कि अपने इष्ट देवता मे अनन्यता की प्राप्ति के लिए उनसे भिन्न देवता की उपेक्षा अपेक्षित है और वह उपेक्षा बिना अन्य देवता की निन्दा के कैसे सिद्ध हो सकती है? इस तरह उस निन्दा का मुख्य तात्पर्य अपने इष्ट देवता से अन्य देवता की उपेक्षा के लिए उसकी निन्दा में ही हो सकता है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उसने अनन्यता के स्वरूप को ही यथार्थतया समझा नहीं है। क्या अपने एक मात्र इष्टदेव में ही तत्परता को अनन्यता कहें? किन्तु ऐसी अनन्यता खान-पान आदि लौकिक एवं सन्ध्यावन्दनादि वैदिक व्यवहार करने वाले पुरुष में सम्भव नहीं है। यदि कहा जाय कि उन लौकिक-वैदिक सब कर्मो के द्वारा अपने इष्टदेव की ही उपासना करने से अनन्यता बन जायेगी, तो फिर जैसे अन्यान्य लौकिक-वैदिक कर्मों के द्वारा अपने इष्टदेव की उपासना की जा सकती है, वैसे ही अन्य देवता की पूजा आदि के द्वारा भी इष्टदेव की उपासना करते हुए अनन्यता बन सकती है। यथार्थ में तो-
अर्थात ‘हे अर्जुन! भोजन, होम, दान, तपस्या आदि जो कुछ भी करो; वह सब मुझे अर्पण कर दो।’ अर्थात ‘मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा भगवान की पूजा करके मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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