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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य मंगलमय विग्रह की तापहारिणी अपार-सौन्दर्यशालिनी कान्ति को चन्द्रमा की उपमा दी जाती है। पर भगवान का रूप-सौन्दर्य अप्राकृत होने से प्राकृत चन्द्र उपमान वहाँ ठीक नहीं घटता। तथापि लोक में सबसे अधिक पूर्णचन्द्र ही प्राणियों के मन को हरण करने वाला है और प्राकृतजनों की दृष्टि में अन्य कोई अप्राकृत वस्तु नहीं आ सकती। इसलिये चन्द्रमा की उपमा दी जाती है। पर एक चन्द्रमा से काम नहीं चलेगा। अनन्त कोटि चन्द्रों की कल्पना कीजिये और ऐसे अपार चन्द्रसागर का मन्थन करके जो सारातिसार तत्त्व निकले उस तत्त्व को पुनः मथकर उससे जो सारातिसार तत्त्व निकले, इस प्रकार शतधा मन्थन करके जो सारातिसार चन्द्रतत्त्व निकले, उस चन्द्र का उपमान भगवान में है। यह चन्द्र का उपमान भगवान की उस तापहारिणी शीतल ज्योत्स्ना में है। उनके दुर्निरीक्ष्य तेज का वर्णन गीता में हुआ ही है कि- “दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता। अस्तु, भगवान की शान्तिदायिनी शीतल ज्योत्स्ना सारातिसार तत्त्वरूप चन्द्र के समान है। पर चन्द्र में कलंक है और चन्द्र क्षय-वृद्धिशील है। भगवान की दिव्य ज्योत्स्ना अमृतमय सारातिसार चन्द्र-तत्त्व के समान है, वह निष्कलंक है, निर्विकार है, उससे भावुकों को प्रतिक्षणवर्धमान प्रेम प्राप्त होता है। वह ऐसा अद्भुत सौन्दर्य है कि उस सौन्दर्य-सुधा का एक कण भी जो पान कर लेता है उसकी पिपासा बढ़ती ही जाती है। जिसके नेत्र और मन भगवान के एक रोम पर भी पड़े हों वे उस एक ही रोम के सौन्दर्य पर इतने मुग्ध हो जाते हैं कि वहाँ से वे आगे बढ़ ही नहीं सकते। चंचला लक्ष्मी भी वहाँ आकर अचला हो जाती है, फिर औरों की बात ही क्या है? भगवान के दिव्यातिदिव्य सौन्दर्य में प्राकृत उपमान केवल इतना ही प्रयोजन सिद्ध करते हैं कि इनके द्वारा भगवत्सौन्दर्य का ध्यान करते-करते मन विशुद्ध हो जाता है और मन में जैसे-जैसे विशुद्धि आती है वैसे-वैसे भगवान का जैसा वास्तविक रूप है वह अचिन्त्य अप्राकृत मंगलमय दिव्यरूप भक्त के सामने प्रकट होने लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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