भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री शिवतत्त्व
शिव वही तत्त्व है जो समस्त प्राणियों के विश्राम का स्थान है। ‘शीड् स्वप्ने’ धातु से ‘शिव’ शब्द की सिद्धि है। ‘शेरते प्राणिनो यत्र स शिवः’’- अनन्त पाप-तापों से उद्विग्न होकर विश्राम के लिये प्राणी जहाँ शयन करें, बस उसी सर्वाधिष्ठान, सर्वाश्रय को शिव कहा जाता है। वैसे तो- इत्यादि श्रुतियों के अनुसार जाग्रत, स्वप्न, सुपुप्ति तीनो अवस्थासे रहित, सर्वदृश्यविवर्जित, स्वप्रकाश, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म ही शिव तत्त्व है, फिर भी वही परमतत्त्व अपनी दिव्यशक्यिों से युक्त होकर अनन्त ब्रह्माण्डों का उत्पादन, पालन एवं संहार करते हुए ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि संज्ञाओं को धारण करते हैं। यद्यपि कहीं ब्रह्मा जीव भी कहा जाता है, ‘‘सोऽविभेत् एकाकी न रेमे जाया से स्यादथ कर्म कुर्वीय’’ इत्यादि श्रुतियों के अनुसार भय, अरमण आदि युक्त होने से हिरण्यगर्भ एव विराट को जीव ही कहा गया है, तथापि वह एक-एक ब्रह्माण्ड के उत्पादक मुख्य ब्रह्मादि के साथ तादात्म्याभिमानी जीव ब्रह्मा कहा जाता है। वास्तव में तो जैसे किसान ही क्षेत्र में बीज को बोकर अंकरादि रूप में उत्पादक होता है, वही सिंचनादि द्वारा पालक और अन्त में वही काटने वाला होता है, वैसे ही एक ही अनन्त-अचिन्त्य-शक्ति सम्पन्न भगवान विश्व के उत्पादक, पालक और संहारक होते हैं।
भगवान का कहना है कि समस्त भूतों में जितनी भी मूर्तियाँ उत्पन्न होती है, उन सबकी महद् ब्रह्म (प्रकृति) योनि (माता) है और बीज प्रदान करने वाला पिता मैं हूँ। ‘‘पिताऽहमस्य जगतः’’- मैं ही समस्त जगत का पिता उत्पादक- हूँ।
अर्थात प्रकृतिरूप योनि में जब मैं गर्भाधान करता हूँ, तब उससे समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है। |
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