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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
मथुरा ‘धर्म संघ’ के विशेषाधिवेशन में ‘अखण्ड ज्योति’ के सम्पादक ने अपने कुछ मित्रों की राय और अपने सन् 1942 के 20 सितम्बर के अंगवाले लेख की ओर ध्यान दिलाया और यह बतलाया कि “आज चार मुख के ब्रह्मा, छः मुख के षडानन, हजार मुख के शेष भी यदि कहें कि माला जपने से सुख-शान्ति होगी, तो भी दुनिया इस बात को नहीं मान सकती, जबकि पूजा-पाठ और माला जप होते हुए भी सोमनाथ का मन्दिर टूट ही गया, काशी विश्वनाथ को पलायन करना ही पड़ा। आज भी सब देशों की अपेक्षा यहाँ अधिक धर्म होता है, यहाँ छप्पन लाख साधु अपना समय निरन्तर भजन में ही लगाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेकों गृहस्थ भी भजन करते हैं। बड़े-बड़े मठ-मन्दिर करोड़ों की सम्पत्तियों से भरपूर हैं। गणितज्ञों ने गम्भीर विवेचन करके यह निश्चय कर लिया है, कि हर एक व्यक्ति के पीछे पौने तीन घण्टे का भजन पड़ता है। इस तरह प्रति व्यक्ति के पीछे दो आने की आय और उसमें से डेढ़ पैसे का दान पड़ता है। इस तरह सम्पूर्ण देशों की अपेक्षा यहाँ का धर्म, दान और भजन अधिक है। यदि इनका सदुपयोग हो (धर्मादि की सम्पत्तियों का सदुपयोग हो) तो कितनी ही यूनिवर्सिटियाँ चल सकती हैं। आज की दुनिया धर्म से ऊब गयी है, अतः आज ‘टन-टन’, ‘पों-पों’ से काम नहीं चलेगा। लोगों को धार्मिक बनने का उपदेश करने के पहले वर्तमान स्वरूप और उसके परिष्कार की ओर ध्यान देना होगा।” वस्तुतः ऐसी अनेकों शंकाओं का मूल कारण है, अपने धर्म, कर्म, सभ्यता एवं संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाले शास्त्रों का अध्ययन न करना, उसके विपरीत इतिहासों, साहित्यों का अभ्यास और विपरीत वातावरण में पलना। जब धर्म के स्वरूप पर हम विचार करते हैं तो मालूम होता है कि धर्म केवल माला जपना ही नहीे बतलाता, किन्तु वह तो अधिकारानुसार सामाजिक, राष्ट्रीय सब प्रकार के कर्त्तव्यों को सोच-समझकर यथायोग्य काम करने को कहता है। अतः इस प्रश्न का अवकाश ही नहीं रहता कि जब घर में आग लगी हो तो पानी ढूँढकर बुझाने का प्रयत्न करना चाहिये, केवल ‘राम-राम’ कहने से काम नहीं चल सकता। परन्तु यहाँ भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि घर में आग लगने पर ‘राम-राम’ कहते बैठे रहना सबसे हो भी नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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