भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
श्रीभगवान के स्वरूप में अन्तरात्मा और अन्तःकरण के आकर्षित हो जाने पर सहज ही में प्रत्यक् चैतन्याभिन्न अखण्डानन्द स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। श्रीकपिलदेव जी ने अपनी माँ श्रीदेवहूति जी को प्रथम असंग, अनन्त, निराकार, निर्गुण परमततत्त्व का सम्यक् उपदेश करने के अनन्तर उसमें स्थिति के लिये सगुण स्वरूप का वर्णन करके उसके ध्यान की परमावश्यकता बतलायी है। अति मधुर सुन्दर भगवान के स्वरूप में चित्त जैसे-जैसे अधिक आकर्षित होता है, वैसे ही वैसे उसकी निर्मलता और स्वच्छता बढ़ती है एवं चित्त के अधिकाधिक स्वच्छ होने पर प्रभुस्वरूप में चित्त की और अधिक आसक्ति होती है। जैसे अयस्कान्त मणि (चुम्बक) में स्वच्छ लौह का अत्यधिक आकर्षण होता है, वैसे ही अमलान्तरात्मा का भगवत्स्वरूप में अत्यधिक आकर्षण होता है। प्रेमानन्द के उद्रेक में मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सर्वांग का शैथिल्य तथा नैश्चल्य हो जाता है। लौकिक प्रेम में भी वाङ्निरोध, कण्ठावरोध आदि देखा ही जाता है। फिर अलौकिक भगवान के प्रेमानन्द में सर्वकरण-शैथिल्य तथा नैश्चल्य होना भी श्रीभरत और राम के सम्मिलन में प्रसिद्ध ही है।
इस तरह भगवान के मधुर मुखचन्द्र तथा श्रीचरणारविन्द की दिव्य नखमणि-चन्द्रिकाओं में मन को एकाग्र करने से मन भी प्रेमोन्माद में विह्वल हो उठता है। प्रथम बाह्य विषयों से मन को हटाकर अनन्तकोटि सूर्य के दिव्य प्रकाश को तिरोहित करने वाले श्रीभगवान के परम प्रकाशमय मनोहर श्रीअंग और दिव्यातिदिव्य भूषण-वसन तथा सांगोपांग परिकरादि का चिन्तन किया जाता है। पश्चात प्रेम और अनुराग की वृद्धि में श्रीचरणारविन्द या अमृतमय मुखचन्द्र में ही मन की एकाग्रता सम्पादन की जाती है। प्रेम-प्राखर्य में मन की इतनी शिथिलता होती है कि परम मधुर भगवान से भिन्न वस्तु के चिन्तन की तो चर्चा ही क्या? साक्षात श्रीभगवान के अनन्त कोटि चन्द्रसागर-सारसर्वस्व निष्कलंक पूर्णचन्द्र की मधुर दीप्ति को लजाने वाले सुस्मित मुखचन्द्र को ग्रहण करने में भी वह असमर्थ हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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