पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
जहाँ तक सविशेष ज्ञान की बात है- भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान अनन्त है और मनुष्य का जीवन, मनुष्य के साधन अत्यल्प हैं। एक विषय का ज्ञान एक व्यक्ति अपने जीवन में बहुत थोड़ा पा सकता है। हमें दूसरों के अनुभव दूसरों के अन्वेषणों से ही काम चलाना पड़ता है और दूसरों ने भी जितना ज्ञान पाया है, उस ज्ञानराशि में से अत्यल्प का परिचय अपने जीवन में हम प्राप्त कर सकते हैं। आप इतिहास, भूगोल, चिकित्सा रसायनदि सहस्रों विषयों में से किसी एक विषय की केवल एक शाखा के उद्भट ज्ञाता हो सकते हैं। अत: सविशेष ज्ञान सबका सदा अपूर्ण रहेगा और निर्विशेष ज्ञान में तारतम्य संभव नहीं है। वहाँ तो स्वरूप ज्ञान है अथवा नहीं है। ज्ञान स्वरूप ज्ञान भी होगा सूक्ष्य बुद्धि से, निर्मल बुद्धि से और व्यक्ति की बुद्धि समष्टि संचालक के नियंत्रण में रहेगी अथवा उससे बाहर ? अत: ज्ञानमार्ग के परमाचार्यों को भी स्वीकार करना पड़ा है कि ईश्वर के अनुग्रह के बिना पुरुष में तत्वज्ञान की रुचि ही नहीं जागा करती। सत्ता नित्य है और वह आनन्द स्वरूप है एवं उसका बोध होता है। बोध न हो तो उसका होना ही सिद्ध न हो। सत्ता ही न हो तो बोध किसका ? और वह आनन्द स्वरूप न हो तो निष्प्रयोजन होगी। अत: श्रुति-संत कहते हैं कि परमतत्व सच्चिदानंद हैं। उसके सत्तांश जीवन को लेकर शरीर के माध्यम से कर्मयोग का साधन चलता है। उसके रसरूप आनन्दांश को लेकर मन के भाव के माध्यम से प्रेमयोग प्रवृत्त होता है और उसके ज्ञानांश को लेकर बुद्धि के माध्यम से ज्ञानयोग प्रकाशित होता है। कर्मयोग का लक्ष्य है- देह का मोह मूर्खता है। देह के नाम तथा संबंध को लेकर राग-द्वेष का सर्वथा उन्मूलन एवं सर्वेश्वर के प्रति सर्वकर्म समर्पण, क्योंकि वही वस्तुत: कर्म नियन्ता एवं कारयिता है। कर्तापन का अहंकार ही अज्ञान मूलक है। प्रेमयोग की प्रकृति भी यही है कि शरीर के नाम-रूप तथा इसके संबंधों के राग-द्वेष का सर्वथा उन्मूलन होना चाहिये। रागास्पद वह रस- स्वरूप ही है। यह देहादि सब उसके हैं और इनका दायित्व भी वही सम्हाले। हम सब प्रकार उसके और केवल वह हमारा। यहाँ आकर वह कह देता है- ’तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:। ज्ञानयोग की प्रवृत्ति तो व्यक्ति के उच्छेद के लिए है ही। यदि देहासक्ति, भोगासक्ति, लोकासक्ति का लेश भी बचा है तो अविद्या का नाश हुआ ही नहीं। ऐसा ज्ञानाभास किसी को मुक्त करने में समर्थ नहीं हुआ करता। मुक्त स्वरूप है और उसमें व्यक्तित्व की गन्ध छाया भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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