पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
राज्य में शान्तिकालीन साधारण स्थिति थी; किन्तु राजकुमार सहदेव पहिले दिन से इस परिणाम के लिए प्रस्तुत थे। उन्हें निश्चय था कि उनके पिता मल्लशाला से नहीं लौटेंगे। उन्होंने मल्लशाला को प्रस्थान करते पिता को बहुत श्रद्धा से प्रणाम किया था। जरासन्ध धार्मिक था। पवित्र कुल में उत्पन्न हुआ था। ब्राह्मण भक्त था और प्रजापालक था। उसके सब सद्गुण पुत्र में आये थे; किन्तु पिता का अहंकार सहदेव में नहीं था। कोई लौकिक महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। फलत: उनका हृदय निर्मल सात्त्विक था और उसमें श्रीहरि के प्रति भक्ति थी। ‘पिता महान् हैं।’ सहदेव के मन में उनकी भक्ति ने पिता के प्रति अविनय नहीं, आदर-बुद्धि उत्पन्न की थी। वे अपने ढंग से सोचते थे- ‘अपने पराक्रम से वे श्रीहरि की अर्चना करते हैं। उनका अलौकिक शौर्य भी तो इन भुवनेश्वर की सेवा में लगना चाहिए। वे अपने अतिमानव प्रताप के अनुरूप ही जनार्दन का चिन्तन करते हैं।’ जो इस प्रकार अपने पिता की मथुरा पर की जाने वाली चढ़ाइयों में भी उन पुरुषोत्तम की ही प्रेरणा देखता रहा हो, उस जन्म सिद्ध भगवद्भक्त को तब बहुत प्रसन्नता होनी थी, जब जनार्दन गिरिव्रज आये। जरासन्ध ने जब पुत्र को शासन सौंपा तो सहदेव ने अपने मन में कहा- ‘मैं ऐसे पिता का पुत्र होकर धन्य हुआ। पुरुषोत्तम स्वयं मगधराज को अपने पावन पदों में स्वीकार करने पधारे और वैसे ही याचक होकर आये जैसे कभी दैत्यराज बलि के यहाँ पधारे थे।’ मल्लशाला के सेवक रोते-चिल्लाते नगर में आये तो सहदेव समाचार पाकर चौंके नहीं, न शोक मग्न हुए। उन्होंने सुनते ही आज्ञा दी- ‘हम उन परम पुरुष का स्वागत करेंगे ! मगधराज को तो उन्होंने मुक्त कर दिया। उनकी उपस्थिति में देह त्यागकर पिता तो उनके दिव्यधाम को पधारे! उनके लिए शोक क्या ! अब मगध उन हृषीकेश का है और हम सब उनकी प्रजा हैं। हमारा पहिला कर्तव्य है कि हम उनका स्वागत करेंगे। फिर जो आज्ञा वे देंगे, उनका उनका पालन किया जायेगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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