पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
एक क्षीण आशा एक दिन उनमें-से किसी के मन में जागृत-सी हुई- ‘भगवान् वासुदेव शरणागत वत्सल हैं। उनके श्रीचरणों तक पहुँची प्रार्थना कभी असफल नहीं होती। उन चक्रपाणि ने इस मदमत्त जरासन्ध को सत्रह-बार पराजित करके, मृत्यु के मुख तक पहुँचाकर छोड़ दिया है। क्या हुआ जो नर-नाट्य करते वे एक बार इसके सम्मुख से भागे। उन ब्रह्मण्यदेव ने इसे मिले ब्राह्मणों के आशीर्वाद का सम्मान किया। वे ही समर्थ हैं हम सबको इस विपत्ति से बचा लेने में।’ बात सबको ही ठीक लगती थी; किन्तु बहुत कठिन समस्या थी- ‘श्रीद्वारिकाधीश के चरणों तक प्रार्थना पहुँचे कैसे?’ दूत मगध की सीमा से सकुशल निकल गया, यह समाचार जैसे ही उन बन्दी नरेशों को मिला, उनको विश्वास हो गया कि अब उनकी कारागार से मुक्ति सुनिश्चित है। जो कर्मपाश को काट देते हैं, उन दयाधाम तक किसी आर्तभाव की पुकार पहुँचेगी और मगधराज के कारागार के कपाट बन्द बने रहेंगे ? ‘वे जनार्दन आते होंगे। उन चक्रायुद्ध का चक्र या गदा गिरिव्रज का विनाश करने ही वाला है। आते होंगे वे कमल लोचन।’ मृत्यु का भय उसी समय मिट गया और श्रीकृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा चलने लगी। मरणासन्न प्राणी को जीवनदान मिलने का आश्वासन हो तो उसके प्राणों की उत्सुक प्रतीक्षा का अनुमान कर लीजिये। दूत लौट आया और उसने गुप्तरूप से ही सन्देश भेज दिया- ‘श्रीद्वारिकाधीश आने वाले हैं। उन्होंने अभय दिया है। जरासन्ध अवश्य मरेगा।’ ‘अच्छा हुआ कि वे सेना लेकर नहीं आये।’ राजाओं ने द्वारिकाधीश की राजसभा में हुई प्रतिक्रया का सम्वाद पाया तो मन ही मन उद्धव की प्रशंसा की- ‘धन्य हैं वे यादव महामन्त्री। अन्तत: देवगुरु के साक्षात् शिष्य हैं और भगवान् पुरुषोत्तम के स्नेह भाजन हैं। युद्ध छिड़ता तो कौन जानता था कि दुर्बल पड़ने पर दुष्ट जरासन्ध हम इतनों को ही बलि-पशु बनाकर कोई उग्र अनुष्ठान पूरा न करता।’ |
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