पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
निष्काम कर्म भी शुभ कर्म ही है- बहुत शुभ कर्म है और चाहें या न चाहें, वह अपना फल तो उत्पन्न करेगा ही। जैसे जो सबको तृप्त करना चाहता है, वह कभी वायु, जल या पृथ्वी बन सकता है। जो सबको रोगहीन करना चाहता है वह कभी अश्विनीकुमार हो जायेगा। जो न्याय का बहुत समर्थक है, वह धर्मराज का पद पा सकता है, किन्तु निष्काम होने से ही कर्म निर्बीज नहीं हो जाता। योग का अर्थ है ईश्वर से एकत्व। जब कर्म ईश्वरार्पण होता है तो उसका नाम कर्मयोग होता है। ऐसे ही लौकिक प्रेम का नाम प्रेमयोग नहीं है। सर्वेश्वर के प्रति प्रेम प्रेमयोग अथवा भक्ति है। लौकिक ज्ञान को ज्ञानयोग नहीं कहते। आत्मा-परमात्मा के तत्व का ज्ञान ज्ञानयोग है। यह कर्मयोग- ईश्वरार्पित समस्त कर्म कर्मयोग है और यह कर्म को निर्बीज कर देता है। क्योंकि कर्म सकाम तो है नहीं और निष्काम होकर निरवलम्ब भी नहीं हैं कि वह कर्ता की ओर लौट आवेगा। वह जब सर्वेश्वर को समर्पित हो गया तो उसने अन्त:करण को निर्मल कर दिया। सर्वेश्वर की कृपा का अवतरण होगा उसके प्रति और वह कर्म बंधन से विमुक्त हो जायेगा। जिजीविषा ईश्वरार्पित होकर धन्य होती है, क्योंकि वह सत्य पर आश्रित होती है। देह की भी सुरक्षा व्यक्ति के अपने हाथ में तो है नहीं। शरीर समष्टि का ही एक अंग है और इसका भी संचालक समष्टिका ही संचालक है। अत: उसके हाथ में इसे समर्पित कर सके वह सत्य में स्थित हो गया। तब सत-अनन्त जीवन उसका स्वत्व हो गया। बुभुत्सा- भोग प्राप्त करने की इच्छा भी वैसा ही अज्ञान है, जैसा जिजीविषा। जैसे जीवन अपने हाथ में नहीं, देह नश्वर है, वैसे ही भोग की प्राप्ति भी अपने हाथ में नहीं है। भोग भी नश्वर हैं और यदि बराबर बने रहें तो अपना स्वाद खो देते हैं। भोगों को उपलब्ध करने की इन्द्रिय शक्ति अल्प है और अधिक भोग लोलुपता उन्हें नष्ट कर देती है। बुभुत्सा- भोग की इच्छा का संदेश है कि आप अपूर्ण नहीं है। आप परिपूर्ण हैं, आनंद स्वरूप हैं। लेकिन अपूर्ण देह में बैठकर अपूर्ण बन गये हैं और तब उस अपूर्णता को दूर करने के लिए बैचेन हैं। एक के बाद दूसरे भोग से उसे दूर करना चाहते हैं लेकिन अनुभव यह है कि तृप्ति आनन्द पाने का यह मार्ग नहीं है। ’भोगाभ्यासमनुविवर्धन्ते रागा:।'[1] भोग से तो उनमें राग-तृष्णा बढ़ती है। यह भोग की- काम की अग्नि विषय रूप घृताहुति से तो बुझने वाली नहीं हैं, क्योंकि किसी भोग में रस-तृप्ति है ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योगदर्शन व्यास भाष्य 2-15
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