पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. युधिष्ठिर को धर्मोपदेश
अग्नि के स्वरूप, अग्निहोत्र की विधि, चान्द्रायण की विधि एवं महिमा, द्वादशी-व्रत विधि, ग्रहणादि में दान की विधि तथा महिमा, पीपल का महत्व पूछा। उत्तम पवित्र करने वाले गुण पूछे। उत्तम प्रायश्चित पूछे। भक्त, गौ, ब्राह्मण की महिमा पूछी। किसी का शरीर कहीं अज्ञात देश में छूट जाय तो उसकी प्रेत क्रिया का विधान पूछा। श्रीकृष्ण ने बहुत स्पष्ट और विस्तार से युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर दिया। अन्त में फिर भागवत-धर्म का उपदेश किया- 'युधिष्ठिर कोई किसी वर्ण का हो, जो मुझे भक्तिपूर्वक पत्र-पुष्प, फल अथवा जल अर्पित करता है, मैं उसे स्वीकार करता हूँ। कोई सम्पूर्ण पापों से युक्त होने पर मेरा स्मरण करता है तो वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो दान, तप, यज्ञ, हवन और अतिथि-सत्कार में लगा शुद्ध सदाचारी होने पर भी मेरा भक्त नहीं है, उसके ये सब उत्तम कर्म व्यर्थ हैं, क्योंकि ये उसे स्वर्ग ही ले जायँगे। ये जन्म-मरण से मुक्ति के हेतु नहीं हो सकते। मनुष्य जब समस्त प्राणियों में- मित्र-शत्रु, पापी-पुण्यात्मा सब में समान दृष्टि कर लेता है, तब मेरा सच्चा भक्त होता है। क्रूरता का अभाव, अहिंसा, सत्य, सरलता तथा अद्रोह यह मेरे भक्तों का व्रत है। मेरे भक्त को श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करने वाला अधम मनुष्य भी उत्तम लोक पाता है। मैं ही सब देवता, सिद्धों का आश्रय हूँ। मेरा एकमात्र आश्रय लेने वाले भक्तो की समता बहुत वर्षो तक तपस्या या योग करने वालों से भी नहीं की जा सकती। मेरी भक्ति का, मेरे भक्तों का माहात्म्य श्रवण मात्र महापापी को भी तत्काल पवित्र कर देता है।' श्रीकृष्ण ने अपने उपदेश को समाप्त किया। वहाँ जो देवता, ऋषि, तपस्वी, योगी आदि भगवान का उपदेश श्रवण करने आये थे, सबने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और पाण्डवों के सौभाग्य की प्रशंसा की। युधिष्ठिर से पूजित होकर, श्रीकृष्ण की अनुमति लेकर वे अपने स्थानों को गये। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया। वे अत्यन्त भाव-विभोर हो रहे थे। हाथ जोड़कर उन्होंने स्तुति की और पूजा की। श्रीकृष्णचन्द्र ने स्नेहपूर्वक युधिष्ठिर से कहा- 'महाराज ! आप मेरे सम्मान्य हैं। अत: आप मुझे संकोच में क्यों डालते हैं। मैं तो सदा आपकी सेवा के लिए उत्सुक रहता हूँ। मेरे सब स्वजन, सम्बन्धी आपके सेवक हैं।' 'आप सदा से अपने भक्तों के वश में रहने वाले हैं।' युधिष्ठिर हाथ जोड़कर बोले- 'मुझ जैसे भक्तिहीन पर भी आप अकारण कृपालु अहैतु की कृपा रखते हैं। आपके श्रीचरणों में चित्त लगा रहे, अब यही अनुकम्पा आप करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज