पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. शूरभक्त सुधन्वा
सुधन्वा प्रार्थना करते हुए उस कढ़ाह की परिक्रमा कर रहे थे। उन्होंने तीन परिक्रमा पूरी की और 'भक्तवत्सल भगवान की जय !' कहकर कढ़ाह में कूद पड़े। 'भगवान की जय ! भक्त सुधन्वा की जय !' सहसा सम्पूर्ण उपस्थित समुदाय पुकार उठा। सुधन्वा उस कढ़ाह के खौलते तैल में मजे से बैठे थे और नेत्र बन्द किये 'प्रणतपाल गोपाल ! गिरधारी नन्दलाल' की ध्वनि में तन्मय हो रहे थे। 'यह क्या जादू है?' शंख-लिखित दोनों नैष्ठिक कर्म-तत्पर धर्मात्मा थे। दोनों उस कढ़ाह के पास पहुँचे। उन्होंने पहिली पूछताछ प्रारम्भ की- 'सुधन्वा ने शरीर में कोई ताप-रोधक औषधि मली है? किसी मन्त्र का जप किया है अग्नि-स्तम्भन के लिए? इसे कोई सिद्धि है?' सबको यह पूछकर अखर गयी। सेनापति समीप आकर हाथ जोड़कर बोले; किन्तु उनका स्वर रूक्ष था- 'राजकुमार से आप दोनों भली प्रकार परिचित हैं। वे आपके सम्मुख ही कवच उतारकर कढ़ाह में कूदे हैं। वे जिस मन्त्र का जप कर रहे हैं, वह तो आप दोनों भी सुन ही रहे हैं।' दोनों को लगा कि उन्होंने अनावश्यक प्रश्न किया है। दूसरा सन्देह किया- 'कढ़ाह का तेल उष्ण नहीं है।' 'आप परीक्षा कर लें !' सेनापति अलग गये; किन्तु दोनों ने परीक्षा करने का निश्चय किया। नारियल मंगवाया उन्होंने और उसे कढ़ाह के तेल में डाल दिया। बिना फोड़े नारियल खौलते तेल में पड़ा तो बड़े शब्द के साथ फूटा और दो टुकड़े उसके हो गये। दोनों टुकड़े उछले। एक शंख के सिर में लगा, दूसरा लिखित के सिर पर पड़ाक से पड़ा। नारियल के टुकड़ों के लगने की जो चोट लगी, वह तो लगी ही खौलते तेल में भीगे नारियल के टुकड़े लगे तो लगभग मुख का पूरा वह भाग भस्म होकर भुर्ता हो गया। वहाँ माँस लटक आया। भली प्रकार पता लग गया कि तैल कितना उष्ण है। 'धिक्कार है हमारे धर्मज्ञान को !' नारियल का टुकड़ा सिर में लगते ही महामुनि शंख की प्रज्ञा प्रबुद्ध हो गयी- 'हमने भक्तापराध किया है। इसका प्रयश्चित है अविलम्ब प्राणोत्सर्ग।' शंख वैसे ही कूद पड़े उसी कढ़ाह में। उन्हें लगा कि जो दण्ड सुधन्वा को उन्होंने दिलवाया, उसे स्वयं स्वीकार करके ही अपराध-मुक्त होंगे। उनके भाई लिखित भी कूदते; किन्तु सुधन्वा ने शंख को पकड़ लिया था भुजाएँ बढ़ाकर और उस भक्त के स्पर्श से शंख के लिए भी कढ़ाह का तेल शीतल हो गया था। वे भी उसके समीप स्वस्थ खड़े थे। अब शंख ने कहा- 'वत्स ! अब तुम यहाँ से निकलो ! तुम्हारे पिता की आज्ञा पूरी हो गयी और तुम्हारे जैसा पुत्र पकार वे धन्य हो गये। हम सब तुम्हारे दर्शन से कृतकृत्य हुए।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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