पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
89. अश्वमेध यज्ञ
द्वारिकावासी विश्वास-पात्र व्यक्ति अचानक नहीं आ गया था। ऐसे अनेक विश्वास-पात्र सेवक श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ भेजे थे और वे स्थान-स्थान से आकर अपने स्वामी को समाचार देते रहते थे। श्रीकृष्ण के स्वभाव में ही किसी को अपना स्वीकार करके फिर उसे त्यागना अथवा विस्मृत कर देना नहीं है। उन्हें कोई भले भूला रहे, एक बार जिसे उन्होंने अपना लिया, उसकी क्षण-क्षण की सुध वे सदा रखते हैं। अपनी यात्रा में युद्ध-व्यस्त अर्जुन ने अपने इन हृषीकेश सखा को कभी स्मरण किया अथवा नहीं, कहना कठिन है; किन्तु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समाचार बराबर रखा था। अर्जुन अश्व के साथ आये तो उनका स्वागत करने गरुड़ध्वज रथ ही सबसे आगे बढ़ा। वैसे तो अश्व–साक्षात यज्ञमूर्ति होता है। आचार्यों, ऋषियों तथा आगत सभी राजाओं के साथ आगे जाकर युधिष्ठिर ने अश्व का स्वागत किया। अश्वमेघ-यज्ञ सविधि सम्पन्न हुआ। जहाँ श्रीकृष्ण संरक्षक हों ओर योगीश्वर याज्ञवल्क्य के साथ भगवान व्यास आचार्य हों, वहाँ निर्विघ्न यज्ञ के सम्पन्न हाने में सन्देह ही नहीं था। धर्मराज ने दान-प्रदशिक्षा देकर आगत ऋषियों, ब्राह्मणों तथा कला-जीवियों, याचकों को भी परम सन्तुष कर दिया। आगत राजाओं तथा अन्य वर्ण के लोगों का भी पूरे उत्साह से उपहार देकर सत्कार किया। पहिली बार अर्जुन की दोनों पत्नियाँ उलूपी और चित्रांगदा आयी थीं हस्तिनापुर और वभ्रुवाहन तो सब के अत्यन्त स्नेह भाजन थे; क्योंकि अब वे अकेले पाण्डवों के पुत्रों में बचे थे। भले वे अपने नाना के उत्तराधिकारी होकर मणिपुर में रहने वाले थे और उनके नाना का गोत्र चलने वाला था; किन्तु द्रौपदी, सुभद्रा आदि सबको वे अपने ही पुत्र लगते थे। सबका वात्सल्य पाकर वे अत्यन्त प्रसन्न थे। अवभृथ स्नान के पश्चात जब ऋषि-मुनि विदा हो गये, धीरे-धीरे राजाओं ने भी युधिष्ठिर से अनुमति ली अपने राज्य में लौटने की। सबसे अन्त में वभ्रुवाहन को उनकी माता चित्रागंदा तथा विमाता उलूपी के साथ पाण्डवों ने बहुत सत्कृत करके विदा किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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