पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
सहसा महर्षियों का समूह गगन से धरा पर दोनों रथों के मध्य उतर आया। भगवान शंकर प्रकट हो गये। उन्होंने दोनो अमोघास्त्रों को हाथ उठाकर शान्त कर दिया। ऋषियों ने पुकारा- 'पार्थ ! पाशुपत धनुष से उतार लो अभीप्रलय का समय नहीं आया है। यह त्रिभुवन को भस्म कर देगा।' अर्जुन ने मस्तक झुकाकर कह- 'भगवन ! मैं प्रहार नहीं कर रहा हूँ। केवल प्रयुक्त होने वाले अमोघास्त्र का प्रतिकार कर रहा हूँ।' बात सच थी। आप कोई भी हो: किन्तु किसी को आप अपनी प्राण-रक्षा का प्रयत्न करने से रोक कैसे सकते हैं? महर्षियों ने श्रीकृष्ण की स्तुति की। भगवान महेश्वर ने कहा- 'यह क्या लीला है लीलामय? आप तो सदा से भक्त-व्रत-रक्षक रहे हैं। आपको कब से अपनी प्रतिज्ञा प्रिय हो गयी? भीष्म के लिए भी तो आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग की थी। अर्जुन की प्रतिज्ञा की रक्षा कीजिये ! यह आपका चक्र अर्जुन पर चल सकेगा? चक्र चिन्मय है और वह भक्त भयहारी है, यह मर्यादा मिटा देने से प्रतिज्ञा छोड़ देना अधिक उत्तम है भक्तवत्सल !' भगवान शंकर इतना कहकर अदृश्य हो गये। चक्र में आरम्भ से ही ज्वाला नहीं उठी थी। वह केवल श्रीकृष्ण की तर्जनी में घूम रहा था। इसी समय सुभद्रा आगे आ गयीं- 'भैया ! चित्रसेन को मैने शरण दी है। बहिन ने जिसे शरण दी है, उसे तुम अपनाओगे नहीं?' श्रीकृष्ण रथ से कूद पड़े और अर्जुन भी कूद धनुष रखकर। अपने पदों में प्रणत होते पार्थ को उन पुरुषोत्तम ने भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया। सखा से पृथक हुए तो सुभद्रा के संकेत पर चित्रसेन आकर चरणों पर गिर पड़ा। श्रीकृष्ण का अभयकर उस के मस्तक पर पहुँचा- 'तुम्हारा मंगल हो।' 'मेरे अपमान का कोई महत्त्व नहीं?' महर्षि गालव यह सब देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने कमण्डलु से जल लिया अपने हाथ में शाप देने के लिए बोले- 'मैं तुम सबको देख लूँगा।' कोई भी महर्षि से कुछ कहे, इससे पहिले ही सुभद्रा के नेत्रों में अद्भुत ज्योति जागी। वे सरोष बोलीं। 'ब्राह्मणों का भूषण क्षमा हैं। तपस्वी को अहंकार शोभा नहीं देता। आप निश्चय ही महान तप: तेज रखते हैं; किन्तु मैं यदि पतिव्रता हूँ और सच्चे मन से श्रीकृष्ण की अनुगता हूँ तो यह शाप का जल आपके हाथ से पृथ्वी पर कभी नहीं गिरेगा। यह आपके इस हाथ पर ही सूख जायगा।' अत्यन्त तप्त तवे पर पड़ी पानी की बूँद के समान गालव के हाथ का जल सूख गया और उनका वह हाथ मानों बहुत अधिक जल गया हो, इस प्रकार काला पड़ गया। गालव ने अपने हाथ की ओर देखा और फिर सुभ्रदा की ओर दृष्टि की तो काँपने लगे। ओह ! उन्होंने यह किसका अपराध कर लिया है? उनके सम्मुख ये महाशक्ति अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विधात्री सरोष खड़ी हैं? 'अम्ब क्षमा !' गालव सुभद्रा के चरणों पर गिर पड़े। संकोच पूर्वक सुभद्रा ने उनसे क्षमा माँगी। सब लोग वहाँ से इन्द्रप्रस्थ पहुँचे और श्रीकृष्ण कुछ दिन रुककर, अर्जुन तथा युधिष्ठिर से अनुमति लेकर बहिन सुभद्रा के साथ द्वारिका जाने को विदा हुए। युधिष्ठिर ने तथा अन्य भाइयों ने बार-बार अर्जुन की धृष्टता के लिए क्षमा माँगी; किन्तु श्रीकृष्ण ने तो अर्जुन की प्रशंसा ही की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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