पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
'अब गन्धर्वो में भी आसुर भाव आ गया है।' भगवान जनार्दन ने देवर्षि को सुना दिया। वैसे वे गन्धर्वराज चित्रसेन को मारने की प्रतिज्ञा करके प्रसन्न नहीं थे। 'बहुत अनुचित बात है !' देवर्षि नारद ने कह तो दिया; किन्तु वे भगवान के साक्षात मन हैं। निरपराध गन्धर्वराज को तनिक से प्रमाद के कारण प्राणदण्ड मिले, यह उन्हें सहन नहीं हुआ। चित्रसेन भगवद्भक्त हैं। श्रीकृष्ण के प्रिय सखा अर्जुन के मित्र हैं और देवर्षि के साथ अनेक बार वीणा लेकर श्रीहरि का गुणगान करते तन्मय होते रहे हैं। देवर्षि वैसे भी दयामय हैं और वे भक्ताचार्य ही भक्तों पर आई विपत्ति को बचाने को सचिन्त नहीं होंगे तो होगा कौन। 'आपने प्रतिज्ञा तो कर ही ली है।' बहुत शिथिल उत्साहहीन स्वर में नारदजी ने कहा। मन ही मन श्रीकृष्ण के चरणों की ओर देखते बोले- 'मैं भी प्रतिज्ञा करता हूँ कि उन गन्धर्व की रक्षा न कर सकूँ तो आपका भक्त नहीं। फिर इस वीणा का स्पर्श भी नहीं करूँगा।' 'आज मुझे कुछ शीघ्रता है।' नारदजी ने श्रीकृष्णचन्द्र से विदा ली। वे लीलामय इनको जाते देखते रहे और जब देवर्षि आकाश में अदृश्य हो गये तब श्रीकृष्ण ने अपने आप मानों उन्हें वरदान दिया हो, इस प्रकार कहा- 'एवमस्तु !' मनोवेग देवर्षि को गन्धर्व लोक पहुँचने में कितनी देर लगनी थी। चित्रसेन उन्हें देखते ही उठे तो देवर्षि ने कहा- 'पूजा-प्रणाम पीछे। पहिले अपने सिर पर उतरने को उद्यत कालदण्ड का उपाय करो !' घबड़ाकर चित्रसेन ने इधर-उधर और ऊपर देखा। स्मरण आया कि यमराज का दण्ड तो अदृश्य रहता है। अत: बोला- 'प्रभो ! संयमिनी के स्वामी का तो मैंने कोई अपराध नहीं किया। वे मुझ पर क्यों क्रुद्ध हो गये हैं?' 'यमराज नहीं रूष्ट हैं।' देवर्षि ने कहा- 'रूष्ट हैं महर्षि गालव तुम्हारे प्रमाद से और उनके कारण यमराज की स्वसा के स्वामी रुष्ट हो गये हैं। श्रीकृष्ण ने कल सूर्यास्त से पूर्व तुम्हें मार देने की प्रतिज्ञा कर ली है।' गन्धर्वराज सिर पकड़कर बैठ गये। उनके नेत्रों से अश्रु-प्रवाह चल पड़ा। शरीर काँपने लगा। मुख श्रीहीन पीला पड़ गया। गन्धर्वराज चित्रसेन की यह दशा देखकर- देवर्षि का हृदय अत्यन्त दु:खी हो उठा। वे दयालु बोले- 'तुम तो अभी से निष्प्राण हुए जा रहे हो। कल के सूर्यास्त को बहुत समय है। अपनी रक्षा का प्रयत्न करो !' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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