पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
मनुष्य ऐसे शुभ या अशुभ कर्म करता है कि उनका फल पाञ्चभौतिक देह में सुख या दु:ख भोगना सम्भव नहीं होता तो उनके भोग के लिए स्वर्गादि उत्तम लोकों में दिव्य देह पाकर अथवा नरकों में यातना-देह पाकर जाता है। वहाँ से उन कर्मों का बहुत कुछ क्षय होने पर पृथ्वी में वर्षो के माध्यम से आता है और जल से कीट, पतंग, वनस्पति अथवा किसी प्राणी के शरीर में प्रवेश करके जन्म ग्रहण करता है। जीव के कर्म-संस्कार उसके अन्त:करण में इन्द्रियों के साथ ही रहते हैं। यह सूक्ष्म शरीर जीव के सदा साथ रहता है। जब तक इसके कारण अविद्या की निवृत्ति न हो, जीव का यह जन्म-मरण छूटता नहीं। यह मन की वासना ही पुनर्जन्म का कारण है। जैसे जो वासनाएँ जागृत में पूरी नहीं हो पातीं, उनको मन स्वप्न का संसार बनाकर पूरी करता है, वैसे ही इस शरीर के द्वारा जो वासनाएँ पूरी नहीं हो पातीं, उनको पूरा करने के लिए मन दूसरा शरीर धारण करता है। कर्म शुभ हो या अशुभ उसका फल कर्ता को भोगना ही पड़ता है। जो धर्म का आश्रय लेकर शुभ कर्म लगे रहते हैं, संयम-सदाचार का पालन करते हैं, उन्हें देह त्यागकर दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती। जन्मान्तर भी वे सुख प्राप्त करते हैं। केवल शुद्धान्त:करण विवेकी पुरुष को इस लोक तथा परलोक के भोगों से वैराग्य होता है और तब वह तत्त्वज्ञ पुरुष की शरण लेकर आत्मा के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान अविद्या को निवृत्त करके उसे जन्म-मरण से मुक्त कर देता है। जितेन्द्रिय, मनोनिग्रह में समर्थ, शान्त, विवेकी पुरुष संसार के मोह को त्यागकर एकान्त में रहकर अपने मन को परमात्मा में लगाते हैं। ऐसे यम-नियम-सम्पन्न साधक ध्यान योग के द्वारा समाहित होकर आत्म-साक्षात्कार करते हैं। शम-दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान-सम्पन्न साधक, विवेक, वैराग्ययुक्त होकर जब आत्मज्ञानी पुरुष से तत्व का श्रवण करता है, तब मनन से उसके मनका संदेह मिट जाता है और निदिध्यासन से विक्षेप निवृत्ति हो जाने पर उसकी वृत्तियां स्वत: आत्माकार ग्रहण करके शान्त हो जाती हैं। बिना विवेक के वैराग्य नहीं होता और बिना तीव्रतम वैराग्य तथा सम्पूर्ण संग्रह-परिग्रह के त्याग के केवल बौद्धिक चिन्तन से अविद्या की निवृत्ति नहीं होती। बिना यम-नियम का सम्पूर्ण पालन किये योग में केवल तपस्या अथवा ध्यान से निर्विकल्प स्थिति प्राप्त नहीं होती। यम-नियम में जब किचिंत भी त्रुटि नहीं रहती तो तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्राणिधान प्राणी के अहंकार का नाश करके उसे परमात्मा में स्थित करने में समर्थ हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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