पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. अपने नामों की व्याख्या
17. घृतार्चि- प्राणियों का पोषक घृत मेरे स्वरूपभूत अग्नि की ज्वाला को जगाने वाला है, इसलिए मुझे घृतार्चि यज्ञकर्ता कहते हैं। 18. त्रिधातु- आयुर्वेद के विद्वान वात, कफ, पित्त इन धातुओं से ही प्राणियों का जीवन मानते हैं। इन तीनों का आधार होने से मुझे त्रिधातु कहते हैं। 19. वृषाकपि- धर्म को वृष कहा जाता है। कपि शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ। इसलिए सर्वोत्तम धर्मस्वरूप जानकर प्रजापति कश्यप ने मुझे वृषाकपि कहा है। 20. अनाद्यमध्यानन्त- मैं जगत का साक्षी, सर्वव्यापक एवं शास्ता ईश्वर हूँ। देवता तथा असुर भी मेरे आदि, मध्य तथा अन्त को नहीं जानते। इसलिये मुझे अनादि, अमध्य, अनन्त कहा जाता है। 21. शुचिश्रवा- मैं केवल पवित्र कारण करने योग्य वचनों का श्रवण करता हूँ। किसी के अपवित्र कर्मों को सुनता ही नहीं, इसी से मेरा नाम शुचिश्रवा है। (इसका पर्याय ही है उत्तमलोक अर्थात जो जीव के उत्तम कर्मों को ही आलोकित करता है- देखता है। जीव के कुत्सित कर्मों पर दृष्टि ही नहीं डालता।) 22. एकशृंग- पूर्वकाल में मैंने एक सींग वाले वाराह का (एक सींग वाले मत्स्य का भी) रूप धारण किया था, अत: मेरा नाम एकशृंग हो गया। 23. त्रिककुद- वाराहावतार में ही मेरे तीन ककुद (बैलके गर्दन के पश्चात का ऊँचा भाग) थे। 24. विरचिं- सांख्य शास्त्र का विचार करने वाले जिनको प्रजापति विरचिं कहते हैं, वह मैं ही हूँ। 25. कपिल- आदित्य मण्डल में स्थित ज्योतिर्मय पुरुष, विद्या शक्ति सम्पन्न होने से मुझे कपिल कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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