पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. अपनी बात
भारत में मृत्यु दिवस केवल श्राद्ध करने का है। हमारे यहाँ जयन्ती उत्सव मनाया जाता है। हमारे पर्व उत्सव सब आनन्द के उद्वोधक हैं। विषाद, दु:ख, मृत्यु स्मरण करने-कराने की वस्तु नहीं है। यह भूल जाने की वस्तु है, क्योंकि मृत्यु और दु:ख तथ्य नहीं है। ये आगन्तुक हैं, प्रतीतिमात्र हैं। जीवन अनन्त हैं, नित्य है। परमात्मा आनन्द स्वरूप है और वही सर्व स्वरूप-शाश्वत सत्य है। यह सच होने पर भी जब कोई चरित लिखने लगता है तो एक दूसरा सत्य हिमालय के समान आकर सम्मुख खड़ा हो जाता है- ’संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।'[1] अभिव्यक्ति- व्यक्ति नित्य नहीं हो सकता। श्रीकृष्णचंद्र व्यक्ति नहीं हैं। वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, सर्वरूप हैं, किन्तु जब अवतार-लीला का आविर्भाव करते हैं तो उसका तिरोभाव अनिवार्य है और लीला-वर्णन में तिरोभाव का वर्णन छोड़ा नहीं जा सकता। इस अनिवार्य बाधा के कारण ‘श्रीद्वारिकाधीश’ की समाप्ति दु:खान्त हुई और ‘पार्थ-सारथि’ के साथ भी यही हो रहा है। वैसे ‘भगवान वासुदेव’ की समाप्ति भी सुखान्त तो नहीं कही जा सकती, किन्तु वहाँ श्रीकृष्णचंद्र रणछोड़राय बनकर भी विनोद ही देते हैं। एक संतोष करने के लिए युक्ति दी जा सकती है- ग्रन्थ का सचमुच अन्त ‘नन्दनन्दन’ पर होता है और उसकी समाप्ति दिव्यता में होती है। लेकिन मन समझाने के लिए यह तर्क देना अनावश्यक है। जो व्यक्ति जीवन का चरम सत्य है, जगद्गुरु- पूर्णपुरुष के जीवन की पूर्णता ही उसे भी स्वीकार करके सफल कर देने में है। इस तथ्य को अस्वीकार करने की आवश्यकता नहीं दीखती। एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठंया। सांख्य-तत्वज्ञान, योग-सम्मत आध्यात्मिक साधन तथा स्वधर्म में सुस्थिर निष्ठा के द्वारा प्राप्य मनुष्य जीवन का इतना ही परम लाभ है कि उसे मरते समय श्रीनारायण का स्मरण हो। जो परमाभीष्ट है, जन्म का परमलाभ है, समस्त साधनों का, ज्ञान का, भक्ति का साध्य है, उसे पूर्ण पुरुषोत्तम को भी तो अपनी लीला में व्यक्त करना ही चाहिये था और वह स्थिति प्राप्त होती है तो उसे दु:खान्त कहा भी कैसे जा सकता है। जो अत्यंत अभीष्ट अवस्था है, उसी की प्राप्ति यदि सुखद नहीं मानी जायेगी तो सुख की परिभाषा भी क्या होगी। मैं अपनी बात कहूं, क्योंकि यह चरित तो मैंने अपने लिये लिखा है- केवल अपने लिये, अत: अपनी ओर देखकर मुझे संतोष है। लीला के तिरोभाव का वर्णन करने में- पाण्डवों के महाप्रयाण की चर्चा में जहाँ अन्त:करण में व्यथा की बाढ़ आती है, वहीं अन्त में एक निस्तरंग शान्त स्थिति भी आ जाती है, जैसे अन्धड़ के निकल जाने पर गगन स्वच्छ निर्मल हो गया हो। अत: अन्धड़ भी अभीष्ट है, क्योंकि वह कूड़ा करकट, धूलि को उड़ा ले जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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