पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. विचित्र प्रसन्नता
युधिष्ठिर ने भाव विह्वल होकर श्रीकृष्ण स्तुति की। श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करने लगे तो श्रीकृष्ण ने उनकी ही स्तुति प्रारम्भ कर दी- ‘धर्मराज ! आपकी तपस्या, धर्मपरायणता, साधुता, सरलता के प्रभाव से ही पापी जयद्रथ मारा गया। कौरव आपके अपमान के पास से दग्ध हो रहे हैं। भीष्म जैसा व्रतधारी भी आपके प्रतिपक्ष में जाकर आपकी अवमानना के दोष से मरा। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के अस्त्रज्ञान, बाहुबल, स्थिरता, धैर्य, पराक्रम, कौशल स्फूर्ति, बुद्धि वैभव का वन्दी के समान वर्णन किया। युधिष्ठिर ने भाई को हृदय से लगाकर उनकी पीठ पर हाथ फेरा। दूसरी ओर दुर्योधन बहुत व्याकुल होकर द्रोणाचार्य के समीप पहुँचा था। उसके दु:ख का पार नहीं था। न केवल उसकी बहिन दु:शला विधवा हो गयी थी, उसके विजय पाने के सब स्वप्न समाप्त हो गये थे। युद्ध के प्रारम्भ में उसके समीप पाण्डवों से चार अक्षौहिणी सेना अधिक थी किन्तु आज एक ही दिन के युद्ध में अकेले अर्जुन ने उसकी आठ अक्षौहिणी सेना का संहार कर डाला था। एक अक्षौहिणी के लगभग पहिले मारी जा चुकी थी। अब कठिनाई से उसके पास दो अक्षौहिणी सेना बची थी। जबकि पाण्डवों के पास जो युद्धारम्भ में सात अक्षौहिणी थी, उसमें से अभी चार अक्षौहिणी से अधिक ही उनके पास शेष थी। जिस संख्या बल पर दुर्योधन युद्धारम्भ में गर्व करता था, वह अब पाण्डुपुत्रों के पक्ष में हो गया था। अब उनके पास कौरवों से द्विगुण से भी अधिक सैन्यबल था। दुर्योधन के लगभग आधे भाई भीमसेन अब तक मार चुके थे। दु:खी क्षुब्ध दुर्योधन ने आचार्य द्रोण को बहुत उपालम्भ दिया। उसने कहने में कोई संकोच नहीं किया कि- 'आप पाण्डवों का पक्ष लेते हैं। अर्जुन आपका प्रिय शिष्य है, अत: आपने जान-बुझकर उसे व्युह में जाने दिया। उसकी सफलता की कामना से ही आप व्यूह मुख पर आग्रहपूर्वक अड़े रहे। अर्जुन को रोकने नहीं आये।' द्रोणाचार्य लगातार चार दिन से कठोर परिश्रम करते हुए युद्ध कर रहे थे। दुर्योधन आज भी कई बार उन्हें उपालम्भ दे चुका था। इससे चिढ़कर उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली- 'अब मैं पाडवों पर विजय प्राप्त करके अथवा प्राण त्याग करके ही कवच शरीर से दूर करूँगा। युद्ध अब विरमित नहीं होगा।' दुर्योधन को लगा कि आचार्य का यह आवेश बना रहे। इसी में उसका हित है। आवेश शान्त होने पर फिर पाण्डवों के प्रति उनमें कृपा उदय हो जायगी। अत: उसने रात्रि को भी युद्ध चलता रहे- यह स्वीकार कर लिया। उसने जाकर कर्ण से मन्त्रणा की और युद्ध की भेरी बजवा दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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