पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
भगवान ने भव्य आश्वासन दिया - 'भैया ! साधन के मार्ग में आना तो दूर इसकी जिज्ञासा करने वाला भी नष्ट नहीं होता। इस पथ में पीछे लौटना है ही नहीं। यहाँ जिसने पद रखा, उसकी दुर्गति सम्भव नहीं। इस जन्म में सफलता नहीं पा सकेगा तो आगामी जन्म में उसका वह पूर्वकृत साधन उसे साधन में लगने को विवश कर देगा। वह पवित्र सम्पन्न कुल में या सिद्ध योगी के घर उत्पन्न होगा। उपयुक्त परिस्थिति पावेगा और जहाँ से साधन छूटा था वहीं से पुन: आगे बढ़ेगा। योग की जिज्ञासा उदित होने पर जीव को पूर्णत्व प्रदान करके ही शान्त होती है। इस प्रकार अनेक जन्मों में प्रयत्न की परम्परा बनी रहती है। अनेक जन्मों के प्रयत्न से प्राणी शुद्ध कल्मष होकर परम गति पाता है। ऐसे योगियों में भी जो श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करते हैं, मुझमें मन लगाये हैं वे युक्ततम हैं। ऐसे युक्ततम पुरुष दुर्लभ हैं। सहस्त्रों मनुष्यों में कोई एक साधन करने का प्रयत्न करता है और ऐसे सहस्त्रों प्रयत्न करने वालों में कोई एक मुझे तत्त्वत: जान पाता है। यह तत्त्वत: जानना क्या ? पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पंच महाभूत, मन, बुद्धि तथा अहंकार ये आठ मेरी अपरा प्रकृति हैं और जीव परा प्रकृति है। यह जीव ही जगत का धारक है। सब प्राणी इन दोनों प्रकृतियों से ही प्रादुर्भूत होते हैं। इस प्रकार सबकी सृष्टि-प्रलय मैं ही हूँ। मुझसे परे कुछ नहीं है। मुझसे ही सब व्याप्त है। सबका सार तत्त्व मैं ही हूँ। यह जगत, जगत के सब जीव त्रिगुण से मोहित हैं। अत: इन गुणों से परे मुझ अविनाशी को जान नहीं पाते। यह त्रिगुणमयी माया पार करने में बहुत कठिनाई है। जो मरी ही शरण लेते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं। जो पापी हैं, मूर्ख हैं, नराधम हैं या आसुर भावापन्न हैं उनका ज्ञान माया ने हरण कर लिया है। वे मेरी शरण नहीं लेते। जो पुण्यात्मा हैं, समझदार हैं, दैवी सम्पत्ति सम्पन्न हैं, सत्पुरुष हैं, वे मरी शरण लेते हैं। ये शरण लेने वाले भी चार प्रकार के होते हैं - आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथी और ज्ञानी। ये चारों ही उदार है किन्तु इनमें ज्ञानी तो मरी आत्मा ही है। ऐसा ज्ञानी जो सबको मेरा स्वरूप देखता है, सुदुर्लभ है। कामनाओं ने जिनका ज्ञानापहरण कर लिया है वे विभिन्न देवताओं की अपनी कामना के अनुसार शरण लेते हैं। अपनी प्रकृति एवं आराध्य के अनुसार विभिन्न नियमों का पालन करते हैं। जो जहाँ श्रद्धा करता है, मैं वहीं उसकी श्रद्धा दृढ़ कर देता हूँ क्योंकि मैं ही सर्वरूप हूँ। सब की आराधना का फल भी मैं ही देता हूँ किंतु जो मुझे कोई देवता मानकर आराधना करते हैं, वे अपूर्ण की, अविधिपूर्वक आराधना करने वाले हैं अत: उनको प्राप्त होने वाला फल अन्तवान विनाशी होता है। देवताओं के भक्त देवताओं को और मेरे भक्त मुझे प्राप्त करते हैं क्योंकि व्यक्ति वही होता है जिस प्रकार की उसकी श्रद्धा होती है। जो भूत-प्रेत में श्रद्धा करेगा वह उनको पावेगा। जो मुझमें श्रद्धा करेगा वह मुझको पावेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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