पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. शक्ति का संस्तवन
अत: युद्ध का समय उपस्थित हुआ देखकर उन्होंने अर्जुन से कहा – ‘महाबाहो ! युद्धारम्भ से पूर्व शत्रुओं को पराजित करने की कामना से तुम पवित्र होकर दुर्गविनाशिनी सिंहवाहिनी दुर्गा का स्तवन करो।’ अपने सखा की आज्ञा मिलते ही अर्जुन ने धनुष रथ में रख दिया। वे रथ से नीचे उतर गये। जल से आचमन करके हाथ जोड़कर शक्ति की स्तुति करने लगे – ‘सिद्ध सेनानेतृ, मन्दराचल वासिनी, अष्टभुजे, सिद्धदायनी, तुम्हें नमस्कार। ‘कुमारी, काली, कपाली, कृष्णपिंगले, भद्रकाली, महाकाली, विजये, तुम्हें पुन: प्रणाम। ‘दुष्ट दलनी, चण्ड–मुण्ड विनाशिनी चामुण्डे, चण्डी, भगवती दुर्गे, तुम्हें नमस्कार। ‘तारिणी, कात्यायनी, अम्बि के, मयूर पिच्छ की ध्वजाधारिणी, नन्दात्मजे, कृष्णानुजे, महिषमर्दिनी, कौशिकी, नृमुण्डमालि के तुम्हें बारम्बार प्रणाम। ‘उमा, शाकम्भरी, श्वेता, गौरी, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्षी, धूम्राक्षी, प्रलयंकरी, शकरी तुम्हें शतश: प्रणाम। ‘माता, महादेवि, वरदायिनी ! मैं आपका आह्वान करता हूँ। इस युद्ध में विजय का वरदान दो मुझे।’ वन में, रण में, दुर्ग में, घर में, नभ में, पाताल में, भूमिपर, जल में सर्वत्र तुम्हीं रक्षिका हो, मुझे अपने आशीर्वाद और अभयकरों की छाया से कृतार्थ करो।’ सहसा आकाश असीम प्रकाश से परिपूण हो गया। यद्यपि उसे केवल अर्जुन और श्रीकृष्ण ने ही देखा। सायुधाष्ट महाभुजा सिंहवाहिनी दुर्गा उस प्रकाश मध्य प्रकट हुई। वरद मुद्रा में दाहिना नीचे का हाथ उठाकर बोलीं – ‘अजुन ! तुम शीघ्र शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। मैं जिनकी आज्ञाकारिणी हूँ, अनुगामिनी हूँ, अनुजा हूँ वे स्वयं तुम्हारे रथ पर उपस्थित हैं। वे जहाँ हैं, मेरी समस्त सहानुभूति और सेवा वहीं है।’ आर्शीवाद देकर देवी अन्तर्हित हो गयीं। अर्जुन फिर अपने रथ पर बैठ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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