पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. स्वागत की तैयारी
मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूँ। उनका पाण्डवों पर जैसा अनुराग है वह भी जानता हूँ। अर्जुन तो उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं। वे स्वागत में भेजे गये जल से भरे घट, चरण धोने को प्राप्त जल और कुशल प्रश्न के अतिरिक्त आपकी और किसी वस्तु की ओर नेत्र उठाकर भी नहीं देखेंगे। 'वे सम्मान के योग्य हैं। अतिथि-सत्कार उन्हें प्रिय है। अत: उनका सत्कार अवश्य कीजिए। वे जिस कार्य से आ रहे हैं, उसे आप पूरा करें तो यह उनका सच्चा सत्कार होगा। वे पाण्डवों के साथ दुर्योधन की सन्धि कराना चाहते हैं। उनकी यह बात आप मान लें।' दुर्योधन अपनी दृष्टि से इस तथ्य को देखा। वह बोला - 'पिताजी ! विदुर जी ठीक कहते हैं कि श्रीकृष्ण का पाण्डवों के प्रति बहुत प्रेम है। उन्हें उधर से तोड़ा नहीं जा सकता। अत: भले वे मेरे जामाता साम्बके पिता हैं, उनके सत्कार के लिए जो वस्तुएँ आप उन्हें देना चाहते हैं, वे उन्हें कभी नहीं देनी चाहिए।' भीष्म पितामह ने सम्मति दी - 'श्रीकृष्ण ने जो कुछ करने का निश्चय मन में कर लिया है उसे किसी प्रकार कोई बदल नहीं सकता। अत: वे जो कुछ करने को कहें उसे सादर मान लेना ही मंगलप्रद है। श्रीकृष्ण धर्म की आत्मा हैं। वे धर्म के अनुकूल ही कहेंगे। अत: उनके साथ प्रिय भाषण ही होना चाहिए।' अब दुर्योधन ने अपने मन की बात आवेश में उगल दी - 'यह बात मुझे किसी प्रकार स्वीकार नहीं है कि प्राण रहते राज्यलक्ष्मी पाण्डवों के साथ विभाजित करूँ। मैं तो यह महान कार्य करना चाहता हूँ कि पाण्डवों के पक्षपाती वासुदेव को बन्दी बना लूँ। उनको बन्दी करते ही सब यादव, पाण्डव और पूरी पृथ्वी मेरे अधीन हो जायेगी। वे प्रात:काल यहाँ आ ही रहे हैं। आप सब अब ऐसे प्रयत्न करें कि उन्हें पता न लगे और किसी प्रकार की हानि भी न हो।' राजा धृतराष्ट्र और उनके सब मन्त्री भय के मारे काँप उठे। धृतराष्ट्र ने कहा – ‘बेटा ! अपने मुख से ऐसी बात मत निकाल। श्रीकृष्ण दूत बनकर आ रहे हैं। यह बात धर्म के विपरीत है। वे हमारे सुहृद हैं, सम्बन्धी हैं। उन्होंने कौरवों की कोई हानि भी नहीं की है। उनके बन्दी करने की बात कहकर तू अपने समर्थक भी खो देगा। ये भीष्म और दूसरे राजा भी तेरे विरोधी बन जायेंगे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज