पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह चक्र पृ. 124

पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'

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33. दूतत्‍व की प्रस्‍तुति

युधिष्ठिर को यह प्रस्‍ताव पसन्‍द नहीं आया। वे व्‍याकुल होकर बोले - 'आप कौरवों के पास जायँ, यह मेरी सम्‍मति नहीं हैं। दुर्योधन बहुत हठी है। वह आपकी युक्तियुक्‍त बात भी स्‍वीकार नहीं करेगा। वह कितना दुष्‍ट है, आप जानते हैं। उसके वशवर्ती नरेश वहाँ इस समय एकत्र हैं। आपको वहाँ कष्‍ट हो सकता है और आपको कष्‍ट देकर हमें धन, सुख, देवत्‍व तथा सुरों का साम्राज्‍य भी मिलता हो तो नहीं चाहिए।'

श्रीकृष्णचन्द्र ने गम्भीर होकर कहा - 'संसार हमें दोष न दे, इसके लिए संधिका पूरा प्रयत्न कर लेना चाहिए। अपनी ओर से सब बातें स्पष्ट कर देनी हैं। दुर्योधन कैसा है, मैं जानता हूँ किंतु आप भी जानते हैं कि मैं क्रोध करूँ तो त्रिभुवन सब शूर मिलकर भी मेरे सम्मुख टिक नहीं सकते। सिंह के सम्मुख वन के पूरे पशु मिलकर भी आवें तो कुछ कर लेंगे? मेरा वहाँ जाना निरर्थक तो नहीं ही है। काम न भी बने तो हम यह करके लोक-निंदा से बच जायँगे।'

अब युधिष्ठिर के पास कोई उत्तर नहीं था। उन्होंने कहा - 'यदि आपको यह उचित जान पड़ता है तो जायँ। मैं अपने कार्य में सफल होकर आपके सकुशल लौटने की आशा करता हूँ। आप हमको भी जानते हैं और कोरवों को भी। दोनों का हित भी चाहते हैं। हम दोनों मिलकर शांतिपूर्वक रह सकें, इसके लिए आप सब उचित प्रयत्न करें।'

श्रीकृष्‍णचन्‍द्र ने अब स्‍पष्‍ट कहा - 'महाराज ! आप मेरे वहाँ जाने से कोई आशा न करें। मुझे आपका और कौरवों का भी अभिप्राय ज्ञात है। आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है और उनकी शत्रुता में निमग्‍न है। बिना युद्ध किये जो मिल जाये उसी में आप सन्‍तोष कर लेंगे किन्‍तु यह क्षत्रिय के लिए उचित नहीं है। क्षत्रिय को भिक्षा नहीं माँगनी चाहिए। उसका सनातन धर्म है कि पौरुष प्रकट करे। पराक्रमजीवी ही क्षत्रिय है। संग्राम में शत्रु का मान मर्दन करे या मर मिटे। दैन्‍य उसके लिए प्रशंसा की वस्‍तु नहीं है। अत: आप पराक्रम करके शत्रुओं का दमन करने को प्रस्‍तुत रहें।

धृतराष्‍ट्र के पुत्र बहुत लोभी हैं। तेरह वर्ष आपकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर स्‍नेह-व्‍यवहार से उन्‍होंने बहुत से राजाओं को मित्र बना लिया है। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। भीष्‍म, द्रोण, कृपाचार्य आदि के कारण भी वे अपने को बलवान मानते हैं। अत: आप से सन्धि कर लें इसकी कोई आशा दीखती नहीं। इनके साथ नम्रता का व्‍यवहार करेंगे तो आपके प्रति ये अधिक कठोर होते जाएँगे। ऐसे कुटिल स्‍वभाव के लोग तो सभी के वध्‍य हैं।

'पापी दु:शासन द्यूत सभा में केश पकड़कर आपकी महारानी द्रौपदी को घसीट लाया और उस रोती हुई, असहाया को सबके सम्‍मुख गौ कहकर बार-बार पुकारता रहा। तब आपने अपने पराक्रमी भाइयों को रोक दिया था। धर्मपाश में बँधे होने से वे कुछ भी कर नहीं सके थे। ऐसे अधम पुरुषों को मार ही डालना योग्‍य है। आप इनके वध का निश्‍चय करें।

'धृतराष्‍ट्र और भीष्‍म के प्रति नम्रता दिखाना आपके योग्‍य ही है। मैं वहाँ जाकर आपके सदगुणों को सबके सामने प्रकट कर सकूँगा। दुर्योधन के सब दोष वर्णन करूँगा। इससे शत्रु पक्ष के लोगों का भी हृदय हमारे पक्ष में हो जायगा। धर्म और अर्थ के अनुकूल बातें कहकर शान्ति के लिए प्रार्थन करने पर आपकी निन्‍दा नहीं होगी। कौरवों की ही सब में‍ निन्‍दा होगी। वहाँ जाकर मैं उनकी पूरी गतिविधि भी ज्ञात कर लूँगा। संग्राम होगा, मुझे इसमें कोई सन्‍देह नहीं हैं। अत: आप सभी लोग शस्‍त्र, अस्‍त्र, रथ, कवच, अश्‍व, गज आदि प्रस्‍तुत कर लें। युद्धोपयोगी साधन एकत्र करें। दुर्योधन जीवित रहते आपको कुछ नहीं देगा इसे निश्चित समझ लें।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

पार्थ सारथि
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. मंगलाचरण 1
2. अपनी बात 1
3. प्रस्तावना 5
4. गुरुतत्‍व 11
5. जगद्गुरु 18
6. अक्रूर आये 22
7. पाण्‍डव ही क्‍यों 26
8. शोक समाचार 28
9. प्रथम-मिलन 31
10. इन्‍द्रप्रस्‍थ आगमन 34
11. माया-दर्शन 37
12. खाण्‍डव-दाह 42
13. इन्‍द्र का वरदान 48
14 मय का सभा निर्माण 50
15. हस्तिनापुर-कर्षण 53
16. राजसूय यज्ञ का प्रस्‍ताव 57
17. गिरिव्रज-गमन 62
18. जरासन्‍ध–वध 65
19. बन्‍दी-मुक्ति 69
20. राजसूय-यज्ञ 76
21. अग्र-पूजा 79
22. शिशुपाल-वध 82
23. बैर का बीज हँसी 89
24. दानी कर्ण 92
25. इन्‍द्रप्रस्‍थ से विदा 95
26. वस्‍त्रावतार 97
27. वन में मिलन 102
28. द्रौपदी-सत्‍यभामा संवाद 106
29. दुर्वासा से परित्राण 110
30. पार्थ पवनपुत्र परिचय 114
31. संजय द्वारा संदेश 117
32. श्रीकृष्‍ण के नाम-संजय की व्‍याख्‍या 120
33. दूतत्‍व की प्रस्‍तुति 123
34. पाञ्चाली का आक्रोश 128
35. प्रस्‍थान 130
36. स्‍वागत की तैयारी 132
37. दुर्योधन का आतिथ्‍य अस्‍वीकार 135
38. केले के छिलके 137
39. शान्ति दूत 141
40. दुर्योधन की दुराभिसन्धि 148
41. माता कुन्ती का सन्देश 151
42. कर्ण की मनस्विता 153
43. युद्ध की प्रस्तुति 155
44. शक्ति का संस्‍तवन 156
45. बर्बरीक-वध 158
46. अर्जुन का व्‍यामोह 160
47. गीतोपदेश 163
48. अंडों की रक्षा 181
49. प्रण-भंग 183
50. द्रौपदी भीष्म-शिविर में 187
51. पुनः प्रण-भंग 193
52. भक्त वत्सल 195
53. अभिन्न सखा 199
54. भक्त-भयहारी 201
55. अर्जुन की प्रतिज्ञा 203
56. सचिन्त श्रीकृष्ण 205
57. अर्जुन का स्‍वप्‍न 209
58. युद्ध में अश्व परिचर्या 212
59. जयद्रथ-वध 216
60. विचित्र प्रसन्नता 221
61. सत्‍यासत्‍य 229
62. नारायणास्‍त्र से रक्षा 234
63. आग्‍नेयास्‍त्र निष्‍प्रभाव 236
64. कर्ण को स्वीकृति 239
65. बात का बतंगड़ 241
66. हनुमान का आवेश 247
67. नाग से रक्षा 250
68. कर्ण मारा गया 253
69. शल्य भी समाप्त 257
70. दुर्योधन को मतिभ्रम 259
71. युधिष्ठिर को उलाहना 261
72. श्रीबलराम का कोप-शमन 264
73. अर्जुन का रथ भस्‍म 163
74. पाण्‍डव-परित्राण 270
75. अश्वत्‍थामा से रक्षा 272
76. ब्रह्मास्‍त्र से पुन: रक्षण 277
77. अश्वत्‍थामा को शाप 281
78. भीमसेन की रक्षा 285
79. गान्‍धारी का शाप 288
80. बर्बरीक का सिर 291
81. युधिष्ठिर का अनुताप 294
82. भक्‍त–भक्‍तमान 299
83. भीष्‍म पर अनुग्रह 302
84. भीष्‍म-स्‍तुति 307
85 अपने नामों की व्‍याख्‍या 311
86. अनुगीता 316
87. कृष्‍णार्जुन-युद्ध 324
88. परीक्षित को पुनर्जीवन 331
89. अश्वमेध यज्ञ 336
90. शूरभक्त सुधन्‍वा 340
91. युधिष्ठिर को धर्मोपदेश 351
92. द्वारिका-गमन 355
93. उपसंहार 359
94. अंतिम पृष्ठ 362

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