पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. श्रीकृष्ण के नाम-संजय की व्याख्या
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – ‘जिनके करों में पाँच हाथ चौड़ा वज्रनाभि सहस्त्रार महाचक्र रहता है, वे चक्रपाणि सम्पूर्ण संसार की सम्मिलित शक्ति से भी बहुत बड़े हैं। वे अपने संकल्पमात्र से सारी सृष्टि को भस्म कर सकते हैं। सत्य, धर्म, लज्जा, सरलता का जहाँ निवास है, श्रीकृष्ण वहाँ रहते हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं , विजय वहीं है। ‘वे सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम क्रीड़ा से ही पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग का भी सञ्चालन कर रहे हैं। मुझे लगता है कि वे जनार्दन इस समय पाण्डवों को निमित्त बनाकर अपनी माया से मोहित आपके अधर्मनिष्ठ पुत्रों को भस्म करना चाहते हैं। वे केशव ही अपनी चिच्छाशक्ति से अहर्निशि कालचक्र, जगच्चक्र और युगचक्र को चला रहे हैं। वे एकमात्र हैं जो सम्पूर्ण जगत, काल तथा मृत्यु के भी स्वामी हैं। अपनी माया से उन्होंने त्रिभुवन को मोहित कर रखा है। जो लोग केवल उन्हीं की शरण लेते हैं, वे ही मोह में नहीं पड़ते।’ धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय ने स्पष्ट कह दिया – ‘जो पुरुष ज्ञानहीन है, वह श्रीकृष्ण के वास्तविक सवरुप को नहीं जान सकता। मैं उनकी कृपा से प्राणियों की उत्पत्ति, विनाश के मूल कारण उन अनादि अच्युत को जानता हूँ। कपट का आश्रय न लेने से, व्यर्थ धर्मों के सर्वथा त्याग से, ध्यान योग से और अनन्य चिन्तन से मेरा चित्त शुद्ध हुआ अत: शास्त्र के द्वारा मुझे श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान हो गया।’ धृतराष्ट्र ने आग्रहपूर्वक कहा – ‘संजय ! तुम मुझे श्रीकृष्ण की प्राप्ति का कोई सुगम मार्ग बतलाओ।’ संजय ने अपने अन्धे स्वामी को स्पष्ट, दो टूक उत्तर दिया – ‘कोई अजितेन्द्रिय पुरुष उन अच्युत को नहीं प्राप्त कर सकता। इन्द्रियाँ बहुत प्रबल हैं और इनकी प्रवृति ही बाहर, अज्ञान के विषयों में ले जाने की है। इनको सावधानी से वश में किये बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं है। इन्द्रियजय ही वास्तविक ज्ञान है। इसके बिना श्रीकृष्ण-प्रेम प्राप्त नहीं होता।’ घृतराष्ट्र ने आग्रह किया – ‘तुम एक बार फिर श्रीकृष्णचन्द्र के स्वरूप तथा उनके नामोंका रहस्य मुझे सुना दो।’ संजय ने कहा – ‘मैंने श्रीकृष्ण कुछ नामोंकी व्युत्पत्ति महर्षियों के मुख से सुनी है उनमें-से जो मुझे स्मरण हैं, सुना रहा हूँ। उन अनन्त के अनन्त नाम हैं। वास्तव में तो वे किसी प्रमाण के विषय ही नहीं हैं। ‘देवताओं के भी जन्मस्थान होने से और सबको अपनी माया से आवृत किये होने के कारण वे वासुदेव हैं। ‘व्यापक तथा महान होने के कारण उनको विष्णु कहा जाता है। ‘मौन ध्यान और योग से प्राप्त होने के कारण माधव हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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