पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. संजय द्वारा संदेश
‘ये लोग अपने स्वत्व को, राज्यभोग को प्राप्त करने का जो प्रयत्न कर रहे हैं, उसे तुम धर्म का लोप क्यों बतला रहे हो ? ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी भी भिक्षाटन तो करते ही हैं। संजय ! तुम सम्पूर्ण लोकों का धर्म जानते हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का धर्म तुम्हें ज्ञात है। तुम कौरवों का पक्ष किस धर्म के आधार पर ले रहो हो? ‘राजा युधिष्ठिर ने शास्त्रों का स्वाध्याय किया है। राजसूय, अश्वमेध जैसे यज्ञों का अनुष्ठान किया है। इनके समीप अस्त्र, शस्र, वाहन और सहायक हैं। ऐसी अवस्था में पाण्डव स्वधर्मानुसार कर्तव्य का पालन क्यों न करें ? क्षत्रियोचित कर्तव्य युद्ध में प्रवृत होकर यदि दैववश वे मृत्यु को भी प्राप्त हों तो उनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जायेगी। तुम सब कुछ त्यागकर शान्ति धारण को श्रेष्ठ धर्म कहते हो तो युद्ध करने से राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से ? तुम धर्मज्ञ हो, इस विषय में तुम्हारा क्या अभिप्राय है? पाण्डवों का जो राज्य भाग धर्मत: उन्हें प्राप्त होना चाहिए, धृतराष्ट्र और उनके पुत्र उसे हड़प लेना चाहते हैं। यह तो ऐसा ही है कि कोई लुटेरा या डाकू आकर धन हरण करे और उसके सम्मुख गृहपति को शान्त रहने का उपदेश दिया जाय। ‘दुर्योधन तो लोभ और क्रोध के वशीभूत है। उसने जो राज्य छल से हरण किया है उसे अपना मानने लगा है। पाण्डवों का राज्य तो उसके पास धरोहर रूप में था। उसे कौरव कैसे पा सकते हैं। ‘दुर्योधन ने जिन्हें युद्ध के लिए एकत्र किया है वे मूर्ख नरेश अभिमान के कारण अपनी मृत्यु नहीं देख रहे हैं। मृत्यु का पाश उनके सिर पर मँडरा रहा है।’ अब श्रीकृष्णचन्द्र का स्वर बहुत उग्र हो गया – ‘तुम और तुम्हारे समर्थक धर्मज्ञ भीष्म, द्रोण, कृप आदि कहाँ चले गये थे जब पाण्डव महारानी द्रौपदी एकवस्त्रा होने पर भी भरी सभा में केश पकड़कर लायी गयी। उस समय कुरुवृद्ध दु:शासन को रोक देते तो मेरा प्रिय कार्य होता और धृतराष्ट्र के पुत्रों का भी हित होता। तुम केवल युधिष्ठिर को ही धर्मोपदेश करना चाहते हो और कौरवों को मनमानी करने का अवसर देना चाहते हो?’ सूतपुत्र कर्ण ने कहा था – ‘याज्ञसेनी ! अब तेरे लिए दूसरी गति नहीं है। दासी बनकर दुर्योधन के महल में चली जा। तेरे पति तो दाँव हार चुके हैं। तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले।’ ‘पाण्डव वन में काला मृगचर्म धारण करके जाने लगे तो दु:शासन ने कहा था – ‘ये सब नपुंसक अब नष्ट हो गये। ये चिरकाल के लिए नकर के गर्त में गिर गये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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