श्रीनारायणीयम्
षण्णवतितमदशकम्
पूर्वकाल में एक ब्राह्मण थे, उनका महान् क्लेश से उपार्जित धन जब नष्ट हो गया, तब निर्विण्ण होने के कारण उनकी बुद्धि विमल हो गयी (और वे घर से निकल पड़े)। मार्ग में जन-समूह उन्हें तरह-तरह से पीड़ित करने लगा। तब उन्होंने ऐसी गाथा गायी- ‘मेरे दुःख का कारण ये मनुष्यगण, काल, कर्म और ग्रह आदि नहीं है, इसका कारण तो मेरा चित्त ही है। वही चित्त (आत्मा में कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि) गुणसमूहों का आरोप करके सब कुछ करता है।’ ऐसा कहकर वे शांत हो गये और अंत में आपके सारूप्य को प्राप्त हो गये। विभो! मेरे भी चित्त को उसी प्रकार शान्त कर दीजिए।।9।।
प्राचीन काल में इलानन्दन पुरूरवा अपने से आयी हुई उर्वशी के प्रति अत्यंत आसक्त होकर चिरकाल तक उसके साथ विहार करते रहे। समय-भंग होने के कारण जब वह स्वर्ग चली गयी, तब राजा को अतिशय वैराग्य हो गया और उन्होंने यह गाथा गायी- ‘यह स्त्री-सुख अतिशय क्षुद्र है।’ तत्पश्चात् आपकी भक्ति प्राप्त करके सफल-मनोरथ हो वे सुखपूर्वक जीवन-निर्वाह करने लगे। पवनपुरपते! उसी प्रकार मेरी विषयासक्ति को नष्ट करके मुझे भी भक्तश्रेष्ठ बना दीजिए और मेरे रोगों को दूर कर दीजिए।।10।।
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