श्रीनारायणीयम्
सप्तत्रिंशत्तमदशकम्
विवाह सम्पन्न हो जाने पर विदाई के अवसर पर देवकी का भ्राता कंस देवकी-वसुदेव के प्रति सम्मान प्रदर्शित करता हुआ रथ पर सारथि बनकर बैठ गया। खेद है, उसी समय मार्ग में आपकी आकाशवाणी ने ‘इसका आठवाँ पुत्र तुझ अत्यंत दुराचारी का हनन करने वाला होगा’- यों घोषित किया। उसे सुनकर भयभीत होने के कारण कंस ने समीप में ही बैठी हुई कृशांगी देवकी को मार डालने के लिए तलवार हाथ में उठा ली।।7।।
पुनः उस दुर्बुद्धि ने देवकी की चोटी पकड़ ली। तब वसुदेव जी बड़ी देर तक उसे सान्त्वनापूर्ण वचनों द्वारा समझाते रहे, परंतु उसने (चोटी) नहीं छोड़ी। तदनन्तर ‘इसके पुत्रों को मैं तुम्हें दे दूँगा’ वसुदेव जी के यों प्रतिज्ञा करने पर वह प्रसन्न होकर घर को लौट गया। पूर्वप्रतिज्ञानुसार वसुदेव जी ने आपके प्रथम सहोदर भाई को लाकर उसे समर्पित किया, तथापि कंस ने स्नेहवश उसका वध नहीं किया। देव! दुष्टों की भी बुद्धि कभी-कभी करुणायुक्त देखी जाती है।।8।। |
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