श्रीनारायणीयम्
चतुस्त्रिंशत्तमदशकम्
अपनी सहोदरा शूर्पणखा द्वारा बताये गये वृत्तान्त से विवश हुए रावण के आदेश से मारीच मायामृग बनकर सीता के सामने गया। उसे देखकर सारस के से नेत्र वाली सीता ने उसे प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। तब उसका पीछा करते हुए आपने उस पर एक बाण द्वारा चोट की। मरते समय उसकी कपटभरी पुकार सुनकर जिसने आपके अनुज लक्ष्मण को भेज दिया था, उस सीता को रावण हर ले गया। तब सीता-विरह से दुःखी होने पर भी रावण के वध के उपाय की प्राप्ति से आप भीतर ही भीतर किसी अद्भुत आनन्द का अनुभव कर रहे थे।।9।।
पुनः सूक्ष्मांगी सीता को खोजते हुए आप आगे बढ़े। तदन्तर मार्ग में ‘रावण मेरा वध करके आपकी पत्नी को हर ले गया’- यों कहकर जटायु के स्वर्ग चले जाने पर आपने अपने सुहृद् जटायु का प्रेत-कार्य संपन्न किया। फिर अपने को पकड़ने वाले राक्षस कबंध को मारा। तत्पश्चात् शबरी से मिलकर आप पम्पा तट पर पहुँचे। वहाँ वायु-पुत्र हनुमान से भेंट हुई, जिससे आपका मन अत्यंत हर्षोल्लसित हो उठा। वातालयेश! मेरी रक्षा कीजिए।।10।। ।।इति श्रीरामचरित वर्णनं चतुस्त्रिंशत्तम दशकं समाप्तम्।। |
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