- विधूय क्लेशान् मे कुरु चरणयुग्मं धृतरसं
- भवत्क्षेत्रप्राप्तौ करमपि च ते पूजनविधौ।
- भवन्मूर्त्यालोके नयनमथ ते पादतुलसी-
- परिघ्राणे घ्राणं श्रवणमपि ते चारुचरिते।।7।।
भगवान! मेरे बाह्याभ्यन्तर समस्त क्लेशों के विनाश करके आप ऐसा कर दें कि मेरे युगल चरण आपके क्षेत्र-तीर्थादि की यात्रा करने में, दोनों हाथ आपकी पूजन-क्रिया में, नेत्र आपकी मूर्ति के दर्शन में, घ्राणेन्द्रिय आपके पादपद्मों पर समर्पित हुई तुलसी की गंध के ग्रहण में और कान आपके मनोहर चरित के श्रवण में आनन्द लेने लगें।।7।।
- प्रभूताधिव्याधि प्रसभचलिते मामकहृदि
- त्वदीयं तदरूपं परमसुखचिदरूप मुदियात्।
- उदञ्चद्रोमाञ्चो गलितबहुहर्षा श्रुनिवहो
- यथा विस्मर्यासं दुरुपशमपीडा परिभवान्।।8।।
प्रभो! परमनन्द एवं चिद्ज्ञानस्वरूप आपका वह रूप विपुल आधि-व्याधियों द्वारा बलपूर्वक चलायमान किये गये मेरे हृदय में इस प्रकार उदय हो जाय, जिससे पुलकांकितशरीर तथा अधिक मात्रा में हर्षजनित अश्रुजल बहाता हुआ मैं दुर्दमनीय पीड़ाओं द्वारा उत्पन्न किये गये उपद्रवों को भलीभाँति भूल जाऊँ।।8।।
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