श्रीनारायणीयम्
तृतीयदशकम्
श्रीगुरुवायुपुरनाथ! आपसे विमुख हुए नास्तिक भी जगत में सुखी देखे जाते हैं; परंतु मैं आपका स्नेही हूँ, फिर भी अधिक परिताप का अनुभव कर रहा हूँ। यह क्या बात है? वरदायक! कंसविनाशक! आपकी यह वैषम्यजनित दुष्कीर्ति न हो, इसके पहले ही आप मेरे रोगभार को भलीभाँति शान्त करते हुए शीघ्र ही मुझे अपने भक्तों में शिरोमणि बना दीजिए।।9।।
देव! आपकी करुणा के अभाव में अधिक प्रलाप करने से क्या लाभ? अर्थात कुछ नहीं। अतः वरद! जब तक आपकी करुणा का प्रादुर्भाव होगा तब तक मैं अनेक प्रकार के आर्तप्रलाप का परित्याग करके पहले निश्चय किए हुए आपके श्रीचरण में यथाशक्ति स्पष्ट रूप से नमस्कार, स्तुति और सेवा-पूजा करते हुए अपने दिन बिताऊँगा।।10।। |
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