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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
3. षष्ठी देवी का पूजन
व्रजेन्द्र के मन में समस्त गोपों के प्रति समान ममत्व, समान प्रेम है। आजतक जितने समारोह, जितने उत्सव व्रजेश के घर हुए, सब में व्रजपुर के समस्त गोपों को उन्होंने समान भाव से सूचना दी। पर आज जब कुलरीति का अनुसरण करते हुए अपने पुत्र का मुख देखने के लिये पुरवासियों के निमन्त्रण का प्रश्न आया हो व्रजेन्द्र ने केवल प्रमुख गोपों को ही निमन्त्रित किया। इस भेदभाव में हेतु था अपने नवजात शिशु अनिष्टआशंका। व्रजराज दूत के मुख से कंस के पैशाचिक निश्चय को सुन चुके हैं। तब से उनका चित्त सशंकित है - क्या पता, कंस-प्रेरित कोई राक्षस यहाँ आजाय, गोपों की भीड़ में उसे पहचान न सकूँ और वह शिशु का अनिष्ट कर दे। इसलिये व्रजेन्द्र ने यही उचित समझा कि आज अधिक भीड़ न होने पाये; नारायण की कृपा से कुछ दिन सानन्द बीत जाने पर समयानुसार समस्त पुर वासियों को बुला कर पुत्र का मुख दिखा दिया जाएगा, आज केवल प्रमुख गोप बन्धुओं को ही निमन्त्रित कर कुल-मर्यादा का पालन कर लिया जाय। इसी विचार से विशिष्ट गोप ही निमन्त्रित हुए थे। किंतु ऐसा होने पर भी, सबको निमन्त्रण न मिलने पर भी सारा व्रज मण्डल उमड़ ही पड़ा। सचमुच अब निमन्त्रण की आवश्यकता भी नहीं रही थी, अनिमन्त्रित ही सबका आना अनिवार्य था। भला, सरोवर, अपने वक्षःस्थल पर पद्म श्रेणी का विकास हो जाने पर, उन विकसित पद्म-कुसुमों की पंक्ति से गौरवान्वित होेने पर कहीं मधुलुब्ध भ्रमरों को निमन्त्रित - आह्वान करने जाता है? भ्रमरावली तो बिना बुलाये अपने-आप ही आती है, वह आयेगी ही। नन्दकुल-सरोवरों में भी अनुपम-सौरभशाली नील पद्म का विकास हुआ है; उसे अब रस लोभी अलिकुल (गोपकुल) को आह्वान करने की आवश्यकता नहीं है, अलिकुल स्वयं आयेगा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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