श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
66. अपशकुन देखकर नन्द-यशोदा एवं बलराम जी का तथा अन्य व्रजवासियों का नन्द नन्दन के लिये चिन्तित हो एक साथ दौड़ पड़ना और श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों के सहारे कालीदह पर जा पहुँचना और वहाँ का हृदय विदारक दृश्य देखकर मूर्च्छित हो गिर पड़ना
‘कुछ ही नहीं, सब कुछ नष्ट हो गया दीखता है। इन दुर्निमित्तों का और अर्थ ही क्या है? बस, नीलसुन्दर हम सबों को छोड़ कर चला गया .............।’ कृष्णगतप्राण, कृष्णाविष्ट-हृदय समस्त पुर वासियों का, व्रज दम्पति का एक-सा ही निर्णय हुआ; क्योंकि अनन्तैश्वर्य निकेतन श्रीकृष्णचन्द्र के असमोर्ध्व माहात्म्य की स्फूर्ति इनके वात्सल्य परिभावित चित्त में कभी होती जो नहीं। वहाँ निरन्तर वात्सल्य-सिन्धु ही उद्वेलित होता रहता है। अपना सर्वस्व न्यौछावर कर वे सब के सब सतत नीलसुन्दर के सुख की कामना के लिये उस पारावार-विहीन सागर की ऊर्मियों में ही अवगाहत करते रहते हैं। इसीलिये जिनके एक नाम के उच्चारण मात्र से ही समस्त अमंगलों का अवसान हो जाता है, उन श्रीकृष्णचन्द्र के लिये भी पद-पद पर उन्हें अमंगल का ही भान होने लगता है, उनके प्राणों में टीस चलने लगती है और फिर आज जब एक साथ इतने अधिक अमंगल-सूचक, घोर उत्पात समस्त व्रजपुर वासियों को ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं, तब फिर उनके कोटि-प्राण-प्रतिम नीलसुन्दर के सम्बन्ध में अनिष्ट-आशंका की सीमा रहे, यह तो सोचना ही नहीं बनता। यही कारण है कि उनके मन में नीलसुन्दर के निधन की कल्पना ही जाग्रत हुई तथा ऐसी स्फूर्ति होने के अनन्तर वे पुरवासी एवं व्रजदम्पति प्रकृतिस्थ रह सकें- यह कहाँ सम्भव है! बस, एक साथ दुःख, शोक, भय के अनन्त भार से अभिभूत हुए उनके प्राण मानो बाहर की ओर भाग छूटे हों, प्राण-तन्तुओं से संनद्ध शरीर बरबस उस ओर ही खिंचता जा रहा हो- इस प्रकार समस्त व्रजपुरवासी, व्रजदम्पति, सभी नितान्त विक्षिप्त-से हुए, गोकुल से निकल पड़े। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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