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इस बार अग्रज के नेत्र अर्द्ध निमीलित अवश्य हो गये- तन्द्रा से नहीं, स्नेह की बाढ़ से। किंतु रह-रह कर वे पूर्व की भाँति ही, आँखे खोल कर अब भी अनुज को देखने लग जाते हैं। इसी समय सहसा श्रीकृष्णचन्द्र अतिशय उत्फुल्ल हो कर मधुमय कण्ठ से कह उठते हैं- ‘बस-बस, दादा! अब उपाय ध्यान में आ गया, तुम निश्चय ही सुख-निद्रा में सो जाओगे!’- अविलम्ब व्रजेन्द्र नन्दन ने अपनी मुरली कटि से निकाल कर होठों पर रख ली और उसमें स्वर भरना आरम्भ किया। दूसरे ही क्षण श्रीबलराम के नेत्र कमल मुकुलित हो गये। इसके अतिरिक्त एक साथ ही ध्वनि प्रसरित होने लगी वनस्थली के सब अंशों में। और फिर इसके महादिव्योन्मादमय प्रभाव को कोई सह ले सके, यह सम्भव ही कहाँ है। चर-अचर सभी वनवासी विमोहित होने लगते हैं। सबके कर्ण पुटों के पथ से हृत्तल में एक अनिर्वचनीय सुधा कल्लोलिनी उमड़ी आ रही है तथा दृगञ्चल भर रहा है उस मुरली वाले की महा मरकत श्यामल छबि से। और तो क्या, स्वयं मुरली मनोहर वृन्दारण्य बिहारी भी अग्रज के निकट विराजित रहकर, आनन्द विवश हुए झूम रहे हैं-
- मुख मुरली सुर साधियौ तहँ रूप उज्यारे।
- सुनि मोहे बन जीव, जे सुर श्रवननि धारे।।
- मगन महा मन गोद में ब्रज-विपिन-बिहारी।
- खग भ्रग पसु सब मोहियौ प्रभु-छबिहि निहारी।।
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