- महाभारत शान्ति पर्व में आपद्धर्म पर्व के अंतर्गत 153वें अध्याय में ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
युधिष्ठिर ने पूछा- ‘पितामह! क्या आपने कभी यह भी देखा या सुना है कि कोई मनुष्य मरकर फिर जी उठा हो! भीष्म जी ने कहा- कुन्तीनन्दन! प्राचीनकाल में नैमिषारण्य क्षेत्र में गीध और गीदड़ का जो संवाद हुआ था, उसे सुनो, वह पूर्वघटित यथार्थ इतिहास है।
विषय सूची
गीध का संवाद
किसी ब्राह्मण को बड़े कष्ट से एक पुत्र प्राप्त हुआ था। वह बड़े-बड़े़ नेत्रोंवाला सुन्दर बालक बाल-ग्रह से पीड़ित हो बाल्यावस्था में ही चल बसा। जिसने युवावस्था में अभी प्रवेश ही नहीं किया था तथा जो अपने कुल का सर्वस्व था, उस मरे हुए बालक को लेकर उसके कुछ दुखी बान्धव शोक से व्याकुल हो फूट-फूटकर रोने लगे। उस मृत बालक को गोद में लेकर वे श्मशान की ओर चले। वहाँ पहुँचकर खड़े हो गये और अत्यंत दुखी होकर रोने लगे। वे उसकी पहले की बातों को बारंबार याद करके शोकमग्न हो जाते थे; इसलिये उसे श्मशान भूमि में डालकर लौट जाने में असमर्थ हो रहे थे। उनके रोने के शब्द से आकृष्ट होकर एक गीध वहाँ आया और इस प्रकार कहने लगा- ‘मनुष्यों! इस जगत में अपने इस इकलौते पुत्र को यहाँ छोड़कर लौट जाओ, देर मत करो। यहाँ हजारों स्त्री-पुरुष काल के द्वारा लाये जा चुके हैं और उन सबको उनके भाई-बन्धु छोड़कर चले जाते हैं। ‘देखों, यह सम्पूर्ण जगत ही सुख और दु:ख से व्याप्त है, यहाँ सबको बारी-बारी से संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं। ‘जो लोग अपने मृतक सम्बन्धियों को लेकर श्मशान में जाते हैं, और जो नहीं जाते हैं, वे सभी जीव-जन्तु अपनी आयु पूरी होने पर इस संसार से चल बसते हैं। ‘गीधों और गीदड़ों से भरे हुए इस भयंकर श्मशान में सब ओर असंख्य नरकंकाल पड़े है। यह स्थान सभी प्राणियों के लिये भयदायक है। यहाँ तुम्हें नहीं ठहरना चाहिये; ठहरने से कोई लाभ भी नहीं है। ‘अपना प्रिय हो या’ द्वेषपात्र। कोई भी कालधर्म में (मुत्यु) को पाकर कभी पुन: जीवित नहीं हुआ है। समस्त प्राणियों की ऐसी ही गति है। ‘जिसने इस मर्त्यलोक में जन्म लिया है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना होगा। काल द्वारा निर्मित पथ पर मरकर गये हुए प्राणी को कौन जीवित कर सकेगा। ‘सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं, जगत के सब लोग दैनिक कार्य समाप्त करके अब उससे विरत हो रहे हैं।
तुम लोग भी अब अपने पुत्र का स्नेह छोड़कर घर लौट जाओं। नरेश्वर! तब गीध की बात सुनकर वे बन्धु-बान्धव जोर-जोर से रोते हुए अपने पुत्र को भूतल पर छोड़कर घर की ओर लौटने लगे। वे इध-उधर रो-गाकर इसी निश्चय पर पहुँचे कि अब तो यह बालक मर ही गया; अत: उसके दर्शन से निराश हो वहाँ से जाने के लिये तैयार हो गये। जब उन्हें यह निश्चित हो गया कि अब यह नहीं जी सकेगा, तो उसके जीवन से निराश हो वे सब लोग अपने बच्चे को छोड़कर जाने के लिये रास्ते पर आकर खडे़ हुए।[1]
गीदड़ का संवाद
इतने ही में कौएँ की पाँख के समान काले रंग का एक गीदड़ अपनी मांद (घूरी) से निकलकर उन लौटते हुए बान्धवों से कहा- ‘मनुष्यों! तुम बड़े निर्दय हो! ‘अरे मूर्खो! अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ है; अत: डरो मत। बच्चे को लाड़-प्यार कर लो। अनेक प्रकार का मुहूर्त आता रहता है। सम्भव है किसी शुभ घड़ी में यह बालक जी उठे। ‘तुम लोग कैसे निर्दयी हो? पुत्रस्नेह का त्याग करके इस नन्हे से बालक को श्मशान-भूमि में लाकर ड़ाल दिया। अरे! अपने बेटे को इस मरघट में छोड़कर क्यों जा रहे हो? ‘जान पड़ता है’ इस मधुर भाषी छोटे-से बालक पर तुम्हारा तनिक भी स्नेह नहीं है। यह वही बालक है, जिसकी मीठी-मीठी बातें सुनते ही तुम्हारा हृदय हर्ष से खिल उठता था। ‘पशु और पक्षियों का भी अपने बच्चे पर जैसा स्नेह होता है, उसे तुम देखो। यद्यपि स्नेह में आसक्त उन पशु-पक्षी-कीट आदि प्राणियों को अपने बच्चों के पालन-पोषण करने पर भी परलोक में उनसे उस प्रकार कोई फल नहीं मिलता जैसे कि परलोक की गति में स्थित हुए मुनियों को यज्ञादि क्रिया से मिलता है। ‘क्योंकि उनके पुत्रों में स्नेह रखने वाले पशु आदि के लिये इहलोक और परलोक में संतानों के लालन-पालन से कोई लाभ नहीं दिखायी देता तो भी वे अपने-अपने बच्चों की रक्षा करते रहते हैं। यद्यपि उनके बच्चे बड़े हो जाने पर अपने मां-बाप का पालन-पोषण नहीं करते हैं तो भी अपने प्यारे बच्चों को न देखने पर उनका शोक काबू में नहीं रहता। ‘परंतु मनुष्यों में इतना स्नेह ही कहाँ है, जो उन्हें अपने बच्चों के लिये शोक होगा। अरे! यह तुम्हारा वंशधर बालक है। इसे छोड़कर तुम कहाँ जाओगे। ‘इस अपने लाड़ले के लिये देर तक आँसू बहाओ और दीर्घ काल तक स्नेह भरी दृष्टि से इसकी ओर देखो, क्योंकि ऐसी प्यारी-प्यारी संतानों को छोड़कर जाना अत्यंत कठिन है। ‘जो शरीर से क्षीण हुआ हो, जिस पर कोई आर्थिक अभियोग लगाया गया हो तथा जो श्मशान की ओर जा रहा हो, ऐस अवसरों पर उसके भाई-बन्धु ही उसके साथ खड़े होते हैं। दूसरा कोई वहाँ साथ नहीं देता। ‘सबको अपने-अपने प्राण प्यारे होते हैं और सभी दूसरों से स्नेह पाते हैं। पशु-पक्षी की योनि में भी जो प्राणी रहते हैं, उनका अपनी संतानों पर कैसा प्रेम है, इसे देखों। इस बालक की कमल-जैसी चंचल एवं विशाल आँखें कितनी सुदंर हैं। इसका शरीर स्नान एवं पुष्पमाला आदि से विभूषित नया-नया विवाह करके आये दुल्हे जैसा है। ऐसे मनोहर बालक को छोड़कर जाने के लिये तुम्हारे पैर कैसे उठ रहे हैं?[2]
गीध और गीदड़ का मृत्यक के बंधु-बांधवों से संवाद
करुणाजनक विलाप करते हुए उस सियार की यह बात सुनकर वे सभी मनुष्य उस मृत बालक के शरीर की देख-रेख के लिये पुन: लौट आये। तब गीध ने कहा-अहो! उस मन्दबुद्धि एवं क्रूर स्वभाव वाले क्षुद्र गीदड़ की बातों में आकर तुम लौटे कैसे आते हो? मनुष्यों! तुम बड़े धैर्यहीन हो। इस बच्चे का शरीर पाँचों इन्द्रियों से परित्यक्त होकर सूखे काठ के समान तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम इसके लिये क्यों शोक करते हो? एक दिन तुम्हारी भी यही दशा होगी, फिर अपने लिये क्यों नहीं शोक करते?[2] अब तुम लोग तीव्र तपस्या करो, जिससे समस्त पापों से छुटकारा पा जाओगे। तपस्या से सब कुछ मिल सकता है। तुम्हारा यह विलाप क्या करेगा? भाग्य शरीर के साथ ही प्रकट होता है और उसका अनिष्ट फल भी सामने आता ही है, जिससे यह बालक तुम्हें अनन्त शोक देकर जा रहा है। धन, गाय, सोना, मणि, रत्न और पुत्र- इन सबका मूल कारण तप ही है। तपस्या के योग से ही इनकी उपलब्धि होती है। जीव अपने पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार दु:ख-सुख को लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। सभी प्राणियों में सुख और दु:ख का भोग कर्मानुसार ही प्राप्त होता है। पिता के कर्म से पुत्र का और पुत्र के कर्म से पिता का कोई संबंध नहीं है। अपने-अपने पाप-पुण्य के बंधन में बंधे हुए जीव कर्मानुसार विभिन्न मार्ग से जाते हैं। तुम लोग यत्नपूर्वक धर्म का आचरण करो और अधर्म में कभी मन न लगाओ। देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में यथा समय तत्पर रहो। शोक और दीनता छोडो़ तथा पुत्रस्नेह से मन को हटा लो। इस बालक को इसी सूने स्थान में छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ। प्राणी जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल भी करने वाला ही भोगता है। इसमें भाई-बंधुओं का क्या है? बधु-बांधव लोग यहाँ अपने प्रिय बधुओं का परित्याग करके ठहरते नहीं है। सारा स्नेह छोड़कर आँखों में आँसू भरे यहाँ से चल देते हैं। विद्वान हो या मूर्ख, धनवान हो या निर्धन, सभी अपने शुभ या अशुभ कर्मों के साथ काल के अधीन हो जाते है। अच्छा, यह तो बताओ, तुम शोक करके क्या कर लोगे? क्या इसे जिला दोगे? फिर इस मृतक के लिये क्यों शोक करते हो? काल ही सबका शासक और स्वामी है, जो धर्मत: सबके ऊपर समान दृष्टि रखता है। यह कराल काल युवा, बालक, वृद्ध और गर्भस्थ शिशु-सबमें प्रवेश करता है। इस संसार की ऐसी ही दशा है।[3]
इस पर गीदड़ ने कहा- अहो! क्या इस मंदबुद्धि गीध ने तुम्हारे स्नेह को शिथिल कर दिया? तुम तो पुत्रस्नेह से अभिभूत होकर उसके लिये बड़ा शोक कर रहे थे। गीध के अच्छी युक्तियों से युक्त न्याय संगत और विश्वासोत्पादक प्रतीत होने वाले वचनों से प्रभावित हो ये सब लोग जो दुस्त्यज स्नेह का परित्याग करके चले जा रहे हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है! अहो! पुत्र के वियोग से पीड़ित हो मृतको के इस शून्य स्थान में आकर अत्यंत दु:ख से रोने-बिलखने वाले इन भूतलवासी मनुष्यों के हृदय में बछड़ों से रहित हुई गायों की भाँति कितना शोक होता है? इसका अनुभव मुझे आज हुआ है; क्योंकि इनके स्नेह को निमित्त बनाकर मेरी आँखों से भी आँसू बहने लगे हैं। अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिये सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये, तब दैवयोग से उसकी सिद्धि होती है। दैव और पुरुषार्थ-दोनों काल से ही सम्पन्न होते हैं। खेद और शिथिलता को कभी अपने मन में स्थान नहीं देना चाहिये। खेद होने पर कहाँ से सुख प्राप्त हो सकता है। प्रयत्न से ही अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होती है; अत: तुम लोग इस बालक की रक्षा का प्रयत्न छोड़कर निर्दयतापूर्वक कहाँ चले जा रहे हो?[3] यह बालक तुम्हारे अपने ही रक्त-मांस का बना हुआ है, आधे शरीर के समान है और पितरों के वंश की वृद्धि करने वाला है, इसे वन में छोड़कर तुम कहाँ जाओगे? अच्छा, इतना ही करो कि जब तक सूर्य अस्त न हो और संध्याकाल उपस्थित न हो जाय, तब तक यहाँ रुके रहो; फिर अपने इस पुत्र को साथ ले जाना अथवा यहाँ बैठे रहना।[4]
गीध ने कहा- मनुष्यों! मुझे जन्म लिये आज एक हजार वर्ष से अधिक हो गये; परंतु मैंने कभी किसी स्त्री-पुरुष या नपुंसक को मरने के बाद फिर जीवित होते नहीं देखा। कुछ लोग गर्भों में ही मरकर जन्म लेते हैं, कुछ जन्म लेते ही मर जाते हैं, कुछ चलने-फिरने लायक होकर मरते हैं और कुछ लोग भरी जवानी में ही चल बसते हैं। इस संसार में पशुओं और पक्षियों के भी भाग्यफल अनित्य हैं। स्थावरों और जंगमों के जीवन में भी आयु की ही प्रधानता है। प्रिय पत्नी के वियोग और पुत्रशोक से संतप्त हो कितने ही प्राणी प्रतिदिन शोक की आग में जलते हुए इस मरघट से अपने घर को लौटते हैं। कितने ही भाई-बंधु अत्यंत दुखी हो यहाँ हजारों अप्रिय तथा सैकड़ों प्रिय व्यक्तियों को छोड़कर चले गये हैं। यह मृत बालक तेजोहीन होकर थोथे काठ के समान हो गया है। इसे छोड़ दो। इसका जीव दूसरे शरीर में आसक्त है। इस निष्प्राण बालक का यह शव काठ के समान हो गया है तुम लोग इसे छोड़कर चले क्यों नहीं जाते? तुम्हारा यह स्नेह निरर्थक है और इस परिश्रम का भी कोई फल नहीं है। यह न तो आँखों से देखता है और न कानों से कुछ सुनता ही है। फिर इसे त्यागकर तुम लोग जल्दी अपने घर क्यों नहीं चले जाते। मेरी ये बातें बड़ी निष्ठुर जान पड़ती है; परंतु हेतुगर्भित और मोक्ष-धर्म से सम्बन्ध रखने वाली है; अत: इन्हें मानकर मेरे कहने से तुम लोग शीघ्र अपने-अपने घर पधारो। मनुष्यों! मैं बुद्धि और विज्ञान से युक्त तथा दूसरों को भी ज्ञान प्रदान करने वाला हूँ। मैंने तुम्हें विवेक उत्पन्न करने वाली बहुत-सी बातें सुनायी है। अब तुम लोग लौट जाओ। अपने मरे हुए स्वजन का शव देखकर तथा उसकी चेष्टाओं को स्मरण करके दूना शोक होता है। गीध की यह बात सुनकर वे सब मनुष्य घर की ओर लौट पड़े। तब सियार ने तुरंत आकर उस सोते हुए बालक को देखा।
सियार बोला- बन्धुओ! देखो तो सही, इस बालक का रंग कैसा सोने के समान चमक रहा है। आभूषणों से भूषित होकर यह कैसी शोभा पाता है। पितरों को पिण्ड प्रदान करने वाले अपने इस पुत्र को तुम गीध की बातों में आकर कैसे छोड़ रहे हो? इस मृत बालक को छोड़कर जाने से न तो तुम्हारे स्नेह में कमी आयेगी और न तुम्हारा रोना-धोना एवं विलाप ही बन्द होगा। उलटे तुम्हारा संताप और बढ़ जायगा, यह निश्चित है। सुना जाता है कि सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्र जी से शम्बूक नामक शूद्र के मारे जाने पर उस धर्म के प्रभाव से एक मरा हुआ ब्राह्मण बालक जीवित हो उठा था।[4] इसी प्रकार राजर्षि श्वेत का भी बालक मर गया था, परंतु धर्मनिष्ठ श्वेत ने उसे पुन: जीवित कर दिया था। इसी प्रकार सम्भव है कोई सिद्ध मुनि या देवता मिल जायं और यहाँ रोते हुए तुम दीन-दुखियों पर दया कर दें। सियार के ऐसा कहने पर वे पुत्र वत्सल बान्धव शोक से पीड़ित हो लौट पड़े और बालक का मस्तक अपनी गोद में रखकर जोर-जोर से रोने लगे।[5]
उनके रोने की आवाज सुनकर गीध पास आ गया और इस प्रकार बोला। गीध ने बोला-तुम लोगो के आँसू बहाने से जिसका शरीर गीला हो गया है और जो तुम्हारे हाथों से बार-बार दबाया गया है, ऐसा यह बालक धर्मराज की आज्ञा से चिरनिद्रा में प्रविष्ट हो गया है। बड़े-बड़े़ तपस्वी, धनवान और महा बुद्धिमान सभी यहाँ मृत्यु के अधीन हो जाते हैं। यह प्रेतों का नगर है। यहाँ लोगों के भाई-बन्धु सदा सहस्रों बालकों और वृद्धों को त्यागकर दिन-रात दुखी रहते हैं। दुराग्रहवश बारंबार लौटकर शोक का बोझ धारण करने से कोई लाभ नहीं है। अब इसके जीने का कोई भरोसा नहीं है। भला, आज यहाँ इसका पुनर्जीवन कैसे हो सकता है? जो व्यक्ति एक बार इस देह से नाता तोड़कर मर जाता है, उसके लिए फिर इस शरीर में लौटना सम्भव नहीं है सैकड़ों सियार अपना शरीर बलदान कर दें तो भी सैकड़ों वर्षों में इस बालक को जिलाया नहीं जा सकता। यदि भगवान शिव, कुमार कार्तिकेय, ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु इसे वर दें तो यह बालक जी सकता है। न तो आँसू बहाने से, न लंबी-लंबी सांस खीचनें से और न दीर्घकाल तक रोने से ही यह फिर जी सकेगा। मैं, यह सियार और तुम सब लोग जो इसके भाई बन्धु हो-ये धर्म और अधर्म को लेकर यहाँ अपनी-अपनी राह पर चल रहे हैं। बुद्धिमान पुरुषों को अप्रिय आचरण, कठोर वचन, दूसरों के साथ द्रोह, परायी स्त्री, अधर्म और असत्य-भाषण का दूर से ही परित्याग कर देना चाहिये। तुम सब लोग धर्म, सत्य, शास्त्रज्ञान, न्याय पूर्ण बर्ताव समस्त प्राणियों पर बड़ी भारी दया, कुटिलता का अभाव तथा शठता का त्याग- इन्हीं सद्गुणों का यत्नपूर्वक अनुसरण करो। जो लोग जीवित माता-पिता, सुहृदों और भाई-बन्धुओं की देखभाल नहीं करता हैं, उनके धर्म की हानि होती है। जो न आँखों से देखता है, न शरीर से कोई चेष्टा ही करता है, उसके जीवन का अन्त हो जाने पर अब तुम लोग रो कर क्या करोगे। गीध के ऐसा कहने पर वे शोक में डूबे हुए भाई-बन्धु अपने उस पुत्र को धरती पर सुलाकर उसके स्नेह से दग्ध होते हुए अपने घर की ओर लौटे।
तब सियार ने कहा- यह मर्त्यलोक अत्यन्त दु:खद है। यहाँ समस्त प्राणियों का नाश ही होता है। प्रिय बन्धुजनों के वियोग का कष्ट भी प्राप्त होता रहता है। यहाँ का जीवन बहुत थोड़ा है। इस संसार में सब कुछ असत्य एवं बहुत अरुचिकर है। यहाँ अनाप-शनाप बकने वाले तो बहुत हैं, परंतु प्रिय वचन बोलने वाले विरले ही हैं। यहाँ का भाव दु:ख और शोक की वृद्धि करने वाला है। इसे देखकर मुझे यह मनुष्य लोक दो घड़ी भी अच्छा नहीं लगता।[5] अहो! धिक्कार है। तुम लोग गीध की बातों में आकर मूर्खों के समान पुत्रस्नेह से रहित हुए प्रेमशून्य होकर कैसे घर को लौट जा रहे हो? मनुष्यों! यह गीध तो बड़ा पापी और अपवित्र हृदय वाला है। इसकी बात सुनकर तुम लोग पुत्र शोक से जलते हुए भी क्यों लौटे जा रहे हो? सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख आता है। सुख और दु:ख से घिरे हुए इस जगत में निरन्तर (सुख या दु:ख) अकेला नहीं बना रहता है। यह सुन्दर बालक तुम्हारें कुल की शोभा बढा़ने वाला है। यह रूप और यौवन से सम्पन्न है तथा अपनी कान्ति से प्रकाशित हो रहा है। मूर्खो! इस पुत्र को पृथ्वी पर ड़ालकर तुम कहाँ जाओगे? मनुष्यों! मैं तो अपने मन से इस बालक को जीवित ही देख रहा हूँ , इसमें संशय नहीं है। इसका नाश नहीं होगा, तुम्हें अवश्य ही सुख मिलेगा। पुत्र शोक से संतप्त होकर तुम लोग स्वयं ही मृतक-तुल्य हो रहे हो; अत: तुम्हारे लिये इस तरह लौट जाना उचित नहीं है। इस बालक से सुख की सम्भावना करके सुख पाने की सुदृढ़ आशा धारण कर तुम सब लोग अल्पबुद्धि मनुष्य के समान स्वयं ही इसे त्यागकर अब कहाँ जाओगे?[6]
भीष्म जी ने कहा- राजन! वह सियार सदा श्मशान भूमि में ही निवास करता था और अपना काम बनाने के लिये रात्रिकाल की प्रतीक्षा कर रहा था; अत: उसने धर्मविरोधी, मिथ्या तथा अमृततुल्य वचन कहकर उस बालक के बन्धु–बान्धवों को बीच में ही अटका दिया। वे न जा पाते थे और न रह पाते थे, अन्त में उन्हें ठहर जाना पड़ा।
गीध का बंधु-बांधवों से जाने के लिये कहना
तब गीध ने कहा- मनुष्यों! यह वन्य प्रदेश प्रेतों से भरा है। इसमें बहुत-से यक्ष और राक्षस निवास करते हैं तथा कितने ही उल्लू हू-हू की आवाज कर रहे हैं; अत: यह स्थान बड़ा भयंकर है। यह अत्यन्त घोर, भयानक तथा नील मेघ के समान काला अन्धकारपूर्ण है। इस मुर्दो को यहीं छोड़कर तुम लोग प्रेतकर्म करो। जब तक सूर्य डूब नहीं जाते हैं और जब तक दिशाएँ निर्मल हैं, तभी तक इसे यहाँ छोड़कर तुम लोग इसके प्रेत कार्य में लग जाओ। इस वन में बाज अपनी कठोर बोली बोलते हैं, सियार भंयकर आवाज में हुआँ–हुआँ कर रहे हैं, सिंह दहाड़ रहे हैं और सूर्य अस्ताचल को जा रहे हैं। चिता के काले धुएँ से यहाँ के सारे वृक्ष उसी रंग में रंग गये हैं। श्मशान भूमि में यहाँ के निराहार प्राणी (प्रेत-पिशाच आदि) गरज रहे हैं। इस भंयकर प्रदेश में रहने वाले सभी प्राणी विकराल शरीर के हैं। ये सब के सब मांस खाने वाले और विकृत अंग वाले हैं। वे तुम लोगों को धर दबायेंगे। जंगल का यह भाग क्रूर प्राणियों से भरा हुआ है। अब तुम्हें यहाँ बहुत बड़े भय का सामना करना पड़ेगा। यह बालक तो अब काठ के समान निष्प्राण हो गया है। इसे छोडो़ और सियार की बातों के लाभों में न पडो़। यदि तुम लोग विवेक भ्रष्ट होकर सियार की झूठी और निष्फल बातें सुनते रहोगे तो सबके सब नष्ट हो जाओगे।[6]
सियार बोले- ठहरो, ठहरो। जब तक यहाँ सूर्य का प्रकाश है, तब तक तुम्हें बिल्कुल नहीं डरना चाहिये। उस समय तक इस बालक पर स्नेह करके इसके प्रति ममतापूर्ण बर्ताव करो। निर्भय होकर दीर्घकाल तक इसे स्नेहदृष्टि से देखो और जी भरकर रो लो। यद्यपि यह वन्य प्रवेश भंयकर है तो भी यहाँ तुम्हें कोई भय नहीं होगा; क्योंकि यह भूभाग पितरों का निवास-स्थान होने के कारण श्मशान होता हुआ भी सौम्य है। जब तक सूर्य दिखायी देते हैं, तब तक यहीं ठहरो। इस मांसभक्षी गीध के कहने से क्या होगा? यदि तुम मोहितचित होकर इस गीध की घोर एवं घबराहट में डालने वाली बातों में आ जाओगे तो इस बालक से हाथ धो बैठोगे।[7]
शिव का बालक को पुन: जीवित करना
भीष्म जी कहते हैं- राजन! वे गीध और गीदड़ दोनों ही भूखे थे और अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये मृतक के बन्धु–बान्धावों से बातें करते थे। गीध कहता था कि सूर्य अस्त हो गये और सियार कहता था नहीं। राजन! गीध और गीदड़ अपना-अपना काम बनाने के लिये कमर कसे हुए थे। दोनों का ही भूख और प्यास सता रही थी और दोनों ही शास्त्र का आधार लेकर बात करते थे। उनमें से एक पशु था और दूसरा पक्षी। दोनों ही ज्ञान की बातें जानते थे। उन दोनों के अमृतरूपी वचनों से प्रभावित हो वे मृतक के संबंधी कभी ठहर जाते और कभी आगे बढ़ते थे। शोक और दीनता से आविष्ट होकर वे उस समय रोते हुए वहाँ खड़े ही रह गये। अपना-अपना कार्य सिद्ध करने में कुशल गीध और गीदड़ ने चालाकी से उन्हे चक्कर में डाल रखा था। ज्ञान-विज्ञान की बातें जानने वाले उन दोनों जन्तुओं में इस प्रकार वाद-विवाद चल रहा था और मृतक के भाई-बन्धु वहीं खडे़ थे। इतने ही में भगवती श्रीपार्वती देवी की प्रेरणा से भगवान शंकर उनके सामने प्रकट हो गये। उस समय उनके नेत्र करुणारस से आर्द्र हो रहे थे। वरदायक भगवान शिव ने उन मनुष्यों से कहा- ‘मैं तुम्हें वर दे रहा हूँ। तब वे दुखी मनुष्य भगवान को प्रणाम करके खड़े हो गये और इस प्रकार बोले- ‘प्रभों! इस इकलौते पुत्र से हीन होकर हम मृतकतुल्य हो रहे हैं। आप हमारे इस पुत्र को जीवित करके हम समस्त जीवनार्थियों को जीवनदान देने की कृपा करें। उन्होंने जब नेत्रों में आँसू भरकर भगवान शंकर से इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंनेउस बालक को जीवित कर दिया और उसे सौ वर्षों की आयु प्रदान की। इतना ही नहीं, सर्वभूतहितकारी पिनाकपाणि भगवान शिव ने गीध और गीदड़ को भी उनकी भूख मिट जाने का वरदान दे दिया। राजन! तब वे सब लोग हर्ष से उल्लसित एवं कृतकार्य हो महादेव जी को प्रणाम करके सुख और प्रसन्नता के साथ वहँ से चले गये।
यदि मनुष्य उकताहट में न पड़कर दृढ़ एवं प्रबल निश्चय के साथ प्रयत्न करता रहे तो देवाधिदेव भगवान शिव के प्रसाद शीघ्र ही मनोवांछित फल पा लेता है। देखो, दैव का संयोग और उन बंधु-बांधवों का दृढ़ निश्चय; जिससे दीनता पूर्वक रोते हुए मनुष्यों का आँसू थोडे़ ही समय में पोंछा गया। यह उनके निश्चयपूर्वक किये हुए अनुसंधान एवं प्रयत्न का फल है। भगवान शंकर की कृपा से उन दुखी मनुष्यों ने सुख प्राप्त कर लिया। पुत्र के पुनर्जीवन से वे आश्चर्यचकित एवं प्रसन्न हो उठे। राजन! भरतश्रेष्ठ! भगवान शंकर की कृपा से वे सब लोग तुरंत ही पुत्रशोक त्यागकर प्रसन्नचित्त हो पुत्र को साथ ले अपने नगर को चले गये। चारों वर्णों में उत्पन्न हुए सभी लोगों के लिये यह बुद्धि प्रदर्शित की गयी है। धर्म, अर्थ और मोक्ष से युक्त इस शुभ इतिहास को सदा सुनने से मनुष्य इहलोक और परलोक में आन्नद का अनुभव करता है।[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 1-17
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 18-33
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 34-51
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 52-67
- ↑ 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 68-85
- ↑ 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 86-102
- ↑ 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 153 श्लोक 103-122
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| कर्मों को करने और न करने का विवेचन
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| स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप
| पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित
| अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन
| दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन
| व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश
| नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार
| चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध
| चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन
| युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
| युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना
| युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना
| युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति
| युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम
| युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार
| युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद
| श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज
| परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न
| परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा
| श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन
| श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना
| भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना
| पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना
| श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या
| सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना
| श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत
| भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना
| भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना
| युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन
| राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता
| राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष
| राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन
| भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन
| युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश
| ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन
| राजा पृथु के चरित्र का वर्णन
| वर्णधर्म का वर्णन
| आश्रम धर्म का वर्णन
| ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व
| वर्णाश्रम धर्म का वर्णन
| राजर्धम का वर्णन
| इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद
| राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल
| राष्ट्र की रक्षा और उन्नति
| राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन
| वसुमना और बृहस्पति का संवाद
| राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन
| राजा के प्रधान कर्तव्य
| दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन
| राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण
| धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म
| राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता
| विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता
| ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान
| ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान
| राज्य के कर्तव्य का वर्णन
| युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन
| उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव
| केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान
| केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन
| आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट
| लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार
| रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना
| ऋत्विजों के लक्षण
| यज्ञ और दक्षिणा का महत्व
| तप की श्रेष्ठता
| राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव
| मन्त्री के लक्षणों का वर्णन
| कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य
| श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद
| मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता
| कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान
| सभासद आदि के लक्षण
| गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश
| इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व
| राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन
| दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण
| राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन
| प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश
| राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय
| प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार
| राजा के कर्तव्य का वर्णन
| उतथ्य का मान्धाता को उपदेश
| राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता
| उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व
| राजा के धर्म का वर्णन
| राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश
| वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन
| वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव
| विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन
| राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा
| शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन
| इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन
| समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन
| शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति
| सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन
| भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण
| विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन
| शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना
| दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश
| कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन
| कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना
| विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना
| गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति
| माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व
| सत्य-असत्य का विवेचन
| धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन
| सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय
| मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा
| तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य
| सरिताओं और समुद्र का संवाद
| दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ
| राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण
| सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा
| कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना
| राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन
| सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन
| सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना
| राजधर्म का साररूप में वर्णन
| दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन
| दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन
| दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन
| त्रिवर्ग के विचार का वर्णन
| पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद
| इन्द्र और प्रह्लाद की कथा
| शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन
| सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा
| राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना
| सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना
| ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना
| तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना
| ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना
| यम और गौतम का संवाद
| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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