पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. शिशुपाल-वध
श्रीकृष्णचन्द्र की अग्र पूजा हुई, उनका जय घोष एवं स्तवन होने लगा। इससे सब प्रसन्न थे किन्तु शिशुपाल जैसे क्रोध के कारण जला जा रहा था। वह उठकर खड़ा हुआ, चिल्लाया, किन्तु उस कोलाहल में उसका स्वर सुनायी नहीं पड़ा, उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। शैशव से शिशुपाल के हृदय में श्रीकृष्ण–द्वेष जमकर बैठा था। जब उसका जन्म हुआ, उसकी चार भुजाऐं और तीन नेत्र थे। थे। वह गर्दभ के स्वर में रेंकते हुए रोने लगा था। इससे सब स्वजन सम्बन्धी डर गये और इस अशुभ शिशु का त्याग कर देने का निर्णय चेदिराज दमघोष ने कर लिया। उसी समय आकाशवाणी हुई- ‘राजन ! डरो मत। तुम्हारा यह पुत्र बहुत बलवान और प्रतापशाली होगा।’ आकाशवाणी ने कहा था- ‘शिशुपालय’ इसलिए उसका नाम शिशुपाल पड़ा। इस आकाशवाणी से उस शिशु की माता महारानी श्रुतस्रवा को सबसे अधिक आनन्द हुआ। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- ‘जिसने भी अलक्ष्य रहकर मेरे पुत्र के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करके इसकी रक्षा की है, वे मेरे लिए तो भगवान ही हैं। वे इतनी कृपा और करें कि मुझे यह बतला दें कि मेरे इस पुत्र की मृत्यु किसके हाथ से होगी।’ आकाश से उत्तर आया- ‘जिसकी गोद में जाते ही इसके दो हाथ गिर जायँ और तीसरा नेत्र लुप्त हो जाय उसके हाथ से ही इसकी मृत्यु होगी।’ चेदिराज के इस अद्भुत शिशु को देखने दूर-दूर से लोग आने लगे। राजा दमघोष स्वयं भी प्रसिद्ध वीरों को, राजाओं को आमन्त्रित करने लगे। जो भी आते थे उनकी गोद में वे अपने पुत्र को रख देते थे। इस क्रम में जरासन्ध ने तो शिशु को अपना धर्मपुत्र ही बना लिया। श्रीकृष्णचन्द्र श्रीबलरामजी के साथ मथुरा से अपनी बुआ के पास अद्भुत बालक को देखने आये। बुआ ने उन्हें आग्रहपूर्वक बुलाया था। स्वागत सत्कार के पश्चात् बुआ ने जैसे ही श्रीकृष्ण की गोद में अपना पुत्र दिया, उसकी दो भुजाएँ गिर गयीं और तीसरा नेत्र लुप्त हो गया। बुआ ने बहुत कातर होकर कहा-‘कृष्ण ! मैं तुमसे बहुत डर गयी हूँ। तुम आर्तों को अभय देने वाले और दु:खियों का दु:ख दूर करने वाले हो। मुझे यह वरदान दो कि मेरी ओर देखकर मेरे इस पुत्र के सब अपराध तुम क्षमा कर दोगे।’ श्रीकृष्ण ने कह दिया-‘बुआजी ! मैं इसके ऐसे सौ अपराध क्षमा कर दूँगा जिनमें एक के करने पर भी किसी को मार देना चाहिए।’ |
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