पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. भीमसेन की रक्षा
संजय ने ही धृतराष्ट्र को दुर्योधन की मृत्यु का समाचार दिया। उसी ने शोकमग्न उन अन्धे राजा को सुझाया कि ‘अब युद्ध में मारे गये लोगों का प्रेतकर्म कराया जाना चाहिए।' अत्यन्त शोकाकुल धृतराष्ट्र को किसी प्रकार विदुर ने समझाया और फिर गान्धारी के साथ सभी स्त्रियों को लेकर वे लोग कुरुक्षेत्र की ओर चल पड़े। देवी कुन्ती को भी धृतराष्ट्र ने साथ ले लिया था; क्योंकि गान्धारी को वही सम्हाल सकती थीं। सहस्त्रों विधवा नारियों का वह आर्तक्रन्दन करता समूह– विदुर जैसे तत्त्वज्ञ भी व्याकुल हो गये वहाँ। उसमें वृद्धाएँ थीं, युवा थीं, बालिकाएँ तक थीं। युद्ध में पितामह, पिता, पुत्र, पौत्र सभी मारे गये थे। उन सबकी विधवाएँ थीं। कौन किसे समझावे और क्या समझावे। सब समान दु:खी। सब चाहे जिसके कण्ठ से लिपटकर या पृथ्वी पर पछाड़ खाती विलाप कर रही थीं। जिन महिलाओं पर देवताओं की भी दृष्टि नहीं पड़ी थी, वे आज केश खोले, आभरणहीना, अनाथा युद्धभूमि की ओर सबके सामने जा रही थीं। मार्ग में ही ये लोग थे कि युधिष्ठिर को समाचार मिल गया। 'वृद्ध अन्धे धृतराष्ट्र सबका अन्तयेष्टि-संस्कार कराने हस्तिनापुर से चल चुके हैं।' यह समाचार मिलते ही युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ चल पड़े। उनके साथ ही श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा युयुत्सु भी अपने रथों से चलें। पाण्डवों को अब तक अवकाश ही नहीं मिला था। अश्वत्थामा ने रात्रि में उनके शिविरमें जो महासंहार किया था, उसका समाचार पाकर वे आये थे और तभी अश्वत्थामा के अपकर्म के कारण उसे दण्ड देने क्रुद्ध भीमसेन दौड़ पड़े थे। अश्वत्थामा बन्दी हुआ। द्रौपदी की दया से छोड़ दिया गया और फिर उसने ब्रह्मशिरास्त्र का प्रयोग किया। श्रीकृष्ण की कृपा से इस विपत्ति से रक्षा हुई तो सब लोग शिविर में रात्रि में मारे गये स्वजनों का संस्कार करने में लग गये। लगभग मध्याह्न के समय धृतराष्ट्र के हस्तिनापुर से कुरुक्षेत्र की ओर जाने का समाचार मिला था। युधिष्ठिर अविलम्ब भाइयों के साथ रथों में बैठकर चल पड़े थे। युद्ध में जो भी मारे गये थे, वे किसी भी पक्ष से मारे गये हों, अब सबके अन्तिम संस्कार का दायित्व पाण्डवों पर था। उनके पक्ष के लोग भी कम नहीं मरे थे वहाँ और मरा हुआ शत्रु भी सत्पुरुष के लिए पराया नहीं होता, दुर्योधनादि तो उनके स्वजन ही थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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