पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. अभिन्न सखा
लगभग सायंकाल आचार्य सब रक्षकों को पराजित करते युधिष्ठिर के सम्मुख पहुँच गये। अर्जुन विकट युद्धमें उलझकर कुछ दूर हो गये थे। कौरवों की सेना में हर्षनाद होने लगा- 'अब आचार्य युधिष्ठिर को पकड़कर हमारे महाराज दुर्योधन को सौंप देंगे।' द्रोणाचार्य ने धनुष पर नागपाश चढ़ाया था युधिष्ठिर को बाँधने के लिए। दूसरी ओर श्रीकृष्ण ने सहसा रथ मोड़ दिया और अर्जुन से बोले- 'शीघ्रता करो। आचार्य का धनुष काट दो।' अचानक आचार्य का धनुष दो टुकड़े हो गया। उन्होंने देखा कि बाण तो सव्यसाची का है। वे पुकार उठे- 'अर्जुन आ गया।' आचार्य का पुकार उठना उनके पक्ष के लिए अधिक अहितकर हो गया। उनकी सेना के लोग भी पुकार उठे- 'अर्जुन आ गया।' कौरव सेना में आतंक छा गया। दूसरी और पाण्डव सेना में भी लोगों ने कहा- 'अर्जुन आ गये।' उनमें उत्साह दौड़ गया। भागते लोग भी लौट पड़े। अस्त-व्यस्त सेना जमकर प्रतिकार करने लगी। सचमुच अर्जुन आ गये। श्रीकृष्ण ने नन्दिघोष रथ सीधे हाँक दिया था। अर्जुन की बाण वर्षा और नन्दिघोष का लोगों को कुचलता चलता रथ चक्र- उसके वेग में व्याघात पड़ नहीं सकता था। पहुँचते ही अर्जुन ने वह संहार प्रारम्भ किया कि पृथ्वी शत्रुओं के शवों से पट गयी। कौरव सेना त्राहि-त्राहि करती भाग खड़ी हुई। आचार्य द्रोण कुछ कर नहीं सके। सूर्यास्त ने ही युद्ध बन्द कराके कौरवों को सुरक्षा दी। रात्रि के प्रथम प्रहर में अर्जुन श्रीकृष्ण के समीप जा बैठे। उन्होंने कहा- 'गोविन्द ! आचार्य पृथ्वी के किसी भी योधा से कम नहीं हैं। वे अजेय प्राय हैं। वैसे भी युद्ध में जय, पराजय अनिश्चित रहती है। मैं जानना चाहता हूँ कि कलको मैं किसी के अमोघ अस्त्र से मारा ही जाऊँ तो आप क्या करेंगे ?' श्रीकृष्ण सीधे बैठ गये। उनका स्वर गंभीर हो गया- 'धनंजय ! तुम ऐसा क्यों सोचते हो ? मैं तुम्हारे साथ हूँ और कोई मार देगा ? सृष्टि ने ऐसा शूर न कभी उत्पन्न किया, न कर सकती। कोई अस्त्र ऐसा नहीं है जो श्रीकृष्ण के संकल्प को अन्यथा कर सके। स्वयं शूलपाणि भगवान प्रलयं कर पिनाक लेकर आजायँ तो भी मेरे प्राण सखा अर्जुन को मारा नहीं जा सकता। अर्जुन के ऊपर प्रयुक्त पाशुपतास्त्र भी प्रभावहीन होकर रहेगा। पृथ्वी रहे या खण्ड-खण्ड हो जाय, सृष्टि समाप्त हो जाय किन्तु मेरे रहते तुम्हें मारने का प्रयत्न सफल नहीं हो सकता। अर्जुन ने सस्मित मुख कहा- 'यह जानता हूँ, किन्तु कभी-कभी अनहोनी भी हो जाती है। ऐसा हो जाय तो तुम क्या करोंगे मेरे मरने के पश्चात् ?' श्रीकृष्ण का स्वर काँपने लगा- 'यदि यह असम्भव कदाचित सम्भव हो जाय तो सृष्टि की सब मर्यादाएँ नष्ट हो जायँगी। मैं चक्र उठाऊँगा और किसी के भी वरदान एवं महास्त्र की मर्यादा की किचिंत चिन्ता किये बिना सम्पूर्ण कौरव पक्ष को, उसकी सहायता को सब देवता, दैत्य, दानव आ खड़े हों तो उन्हें भी केवल कुछ पलों में नष्ट कर दूंगा। सबको मारकर युधिष्ठिर को सिंहासन पर बैठाकर उनका तिलक कर दूंगा। 'इतना सब करके तब अपने सखा के शरीरके साथ स्वयं चितारोहण करूँगा। अर्जुन ! कृष्ण की प्रतिज्ञा है कि वह तुमसे रहित पृथ्वी पर नहीं रहेगा। वह तुमसे पहिले धराका त्याग करेगा।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण के दोनों चरणों को अंक में लिया और उनसे लिपटकर अपने अश्रुओं से उन्हें धोने लगा। श्रीकृष्ण ऐसा उदार, इतना सुहृद सखा। वे पद्मपलाश नयन अपने पटुके से अर्जुन के अश्रु पोंछ रहे थे। इनके रहते अर्जुन के लिए भला कहीं भय हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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