पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. भक्त वत्सल
अन्त में युधिष्ठिर ने सिर झुकाये हुए दीनतापूर्वक कहा- 'जिस उपाय से यह प्रजा संहार बन्द हो, वह हम जानना चाहते हैं। आप स्वयं ही अपनी मृत्यु का उपाय बतला दें, आप अजेय हैं। युद्ध में आप का वेग अदम्य है। हमारी बहुत बड़ी सेना आपके शरों के दावानल में स्वाहा हो चुकी। आप पर विजय पाना असंभव लगता है और उसके बिना अपना धर्मसम्मत स्वतव हमें मिल नहीं सकता।' भीष्म हंस पड़े- 'युधिष्ठिर ! तुम सच कहते हो। जब तक मैं जीवित हूँ, तुम्हारी विजय नहीं हो सकती। यदि विजय की इच्छा है तो मुझे शीघ्र मार डालो। मैं अपने ऊपर प्रहार की आज्ञा देता हूँ। ये पुरुषोत्तम सम्मुख हों तो मृत्यु की कामना कौन नहीं करेगा। कौन ऐसा मूर्ख है जो इनके श्रीमुख को देखते हुए देह त्याग का सुयोग त्यागना चाहेगा। अतः मुझे मार दो। इसमें तुम्हें पुण्य की प्राप्ति होगी।' महामानव पितामह ने अपने वध का उपाय भी स्पष्ट बतलाया कि शिखण्डी के ऊपर वे शस्त्र नहीं उठा सकते। जो शस्त्र नहीं उठा सकते। जो शस्त्र त्याग दे, गिर जाय, कवच उतार दे, ध्वजा झुका दे, भागने लगे, डरा हो, शरण की पुकार करे, व्याकुल हो, जिसके एक ही पुत्र हो, स्त्री हो या स्त्री के समान नाम चेष्टा वाला हो, उससे युद्ध न करने का उनका व्रत है और शिखण्डी को आगे करके वे बाण मारें। वह आगे रहेगा तो वे प्रहार नहीं करेंगे। यही उनके वध के लिए छिद्र है। अन्यथा सावधान रहते उन्हें कोई मार नहीं सकता। पाण्डव उन्हें प्रणाम करके लौट आये। शिविर में आकर अर्जुन अत्यन्त कातर हो उठे। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'माधव ! भीष्म जी कुरुकुल में सबसे वृद्ध हैं, हमारे पितामह हैं, मैं इनके ऊपर वाणों से कैसे आघात कररूँगा। मैं इनकी गोद में खेला हूँ। इन्होंने स्नेह से मेरे धूलिधूसर शरीर को अंक में लिया है। मैं इनकी गोद में बैठकर इन्हीं को पिता कहता था। ये समझाते थे- 'बेटा ! मैं तेरा पिता नहीं हूँ। तेरे पिता का पिता हूँ।' इतना स्नेह जिन्होंने दिया, उन पूज्य का वध मैं कैसे कर सकता हूँ। ये भले मेरी सेना का विनाश कर डालें, मुझे मार डालें किन्तु मैं इनके साथ युद्ध नहीं करूँगा। विजय हो या विनाश, मै। इनको मार नहीं सकूँगा।' श्रीकृष्ण ने कठोर स्वर में कहा- 'तुम इतनी शीघ्र युद्धारम्भ का उपदेश भूल गये ? तुम स्वयं भीष्म के वध की प्रतिज्ञा कर चुके हो। क्षत्रिय धर्म में स्थित रहते अब यह का पुरुषों जैसी बात क्यों ? कोई भले गुरुजन हो, वृद्ध हो, सर्वगुण सम्पन्न हो तो भी आततायी होकर माने आवे तो उसे मार देना ही धर्म है। भीष्म की आयु समाप्त होने को आ गयी है। उनके मरने का समय समीप है। नियति का विधान तुम टाल नहीं सकते हो? क्या चाहते हो कि मैं शस्त्र लेकर यह कार्य सम्पन्न करू ?' अर्जुन ने शिथिल स्वर में कहा- 'मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। शिखण्डी भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगा, यह निश्चित जान पड़ता है। उसे देखते ही वे दूसरी ओर लौट जाते हैं, यह मैंने देखा है। अतः आपकी और उनकी भी आज्ञा का पालन करना ही है मुझे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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