पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. प्रण-भंग
'यह क्या हुआ ? मेरे शैथिल्य ने श्रीकृष्ण को अपने प्रण-भंग पर विवश किया।' अर्जुन ने दौड़ते चक्र उठाये श्रीकृष्ण को देखा तो रथ से कूदकर दौड़े। पीछे से जाकर उन्होंने सखा की दोनों भुजाएं पकड़ लीं; किन्तु उनके पकड़ने पर भी वासुदेव रुके नहीं। वे अर्जुन को घसीटते हुए आगे बढ़ने लगे। अब अर्जुन ने भुजाएं छोड़ दीं और आगे आकर पैरों में पड़ गये। दोनों पैर बलपूर्वक पकड़ लिये। दसवें पद तक पहुँचते-पहुँचते किसी प्रकार वे श्रीकृष्णको रोक सके। 'केशव! अपना क्रोध आप शान्त करें।' अर्जुन ने कातर कण्ठ से कहा- 'आप अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दें, यह मेरे लिए अत्यंत लज्जा की बात है। मैं भाइयों और पुत्रों की शपथ करके कहता हूँ कि अब सच्चे मन से युद्ध करूंगा। श्रीकृष्णचन्द्र ने चक्र उठाया था, क्रोध से नेत्र लाल कर लिये थे, भृकुटि कठोर हो गयी थी। वे हुंकार करते दौड़ रहे थे थे किन्तु भीष्म की ओर उन्होंने अब तक देखा नहीं था। वे केवल सामने भीष्म पर दृष्टि पड़ते ही चक्र की ज्वाला शान्त हो गयी। चक्र किसी भक्त के दृष्टि पथ में आते तो प्रचण्ड रह नहीं सकता।' श्रीकृष्ण के मुखारविन्द पर भी स्मित आ गया। वे लौटे और रथ पर बैठ गये। रथ रश्मि उन्होंने हाथों में ले ली। कौरवों के प्रारब्ध में इसदिन भी पराजय ही थी। धनंजय पूरे उत्साह में आ गये थे। अब कौन उनके सम्मुख रुकता। उन्होंने महिन्द्रास्त्र का प्रयोग किया और शत्रु सेना समाप्त ही हो जाती यदि सूर्यास्त होने से युद्ध विरमित न हो गया होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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