श्रीनारायणीयम्
षट्पञ्चाशत्तमदशकम्
अयि ईश! पहले ही बहुत दिनों से जिन्होंने आपके माहात्म्य को सुन रखा था, अतएव आपमें ही अपने हृदय को विलीन कर दिया था, वे नागपत्नियाँ मुनियों के लिए भी दुष्प्राप्य मार्ग से युक्त स्तोत्रों द्वारा सर्वथा स्वतंत्र आपकी स्तुति करने लगीं।।4।।
अच्युत! नागपत्नियों की भक्ति का अवलोकन करके आपका हृदय अतिशय करुणा से आकुल हो उठा। तब आपने नागराज को जीवित छोड़ दिया। उस समय वह अपने-आपको आपके चरणों में समर्पित करके नमस्कार करने लगा।।5।।
तब आपने कहा- ‘नागराज! अब तुम समुद्र के मध्य में स्थित रमणक नामक द्वीप में चले जाओ। वहाँ सर्पशत्रु गरुड़ तुम्हारा विरोध नहीं करेंगे।’ आपके इस कथन का अत्यंत आदर करता हुआ कालिय अन्य सर्पों के साथ वहाँ से निकल गया।।6।। |
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