श्रीनारायणीयम्
अष्टात्रिंशत्तमदशकम्
उस समय धीर-साधनचतुष्टयसंपन्न मुनि मंडली के चित्त से भी दूर रहने वाले अर्थात् ध्यान में न आने वाले आपके श्रीविग्रह को अपने नेत्रों द्वारा अवलोकन करके वसुदेव जी के नेत्रों में आनन्दाश्रु छलक आये, उनका शरीर पुलकित हो उठा और उनकी वाणी हर्षगद्गद हो गयी। तब वे नेत्रों के लिए मकरन्द स्वरूप आपकी स्तुति करने लगे-।।5।।
‘देव! प्रसन्न होइये। परम पुरुष! आप ताप-वल्ली का मूलोच्छेदन करने के लिए अतिशय तीक्ष्ण शस्त्ररूप हैं, सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखने वाले तथा अपनी अंशभूता माया द्वारा क्रीड़ा करने वाले हैं। अपने कृपा-परिपूर्ण कटाक्षों द्वारा मेरे कष्टों को दूर कर दीजिए।’ इस प्रकार वसुदेव जी हर्षोल्लसित होकर चिरकाल तक आपके स्तवन में लगे रहे।।6।। |
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